वह एक पल

वह एक पल

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वह एक भावुक पल, जब मैंने यह कविता पढ़ी, रोई। अपने मन की सारी पीड़ा। सारा आक्रोश कुछ शब्दों में उड़ेल दिया। क्योंकि आज कुछ ऐसा ही हम महसूस कर रहे हैं। हम भी तनाव में भरे हुए हैं।हमनें भी हजार साल इस त्रासदी को भोगा है। निरंतर अपने अस्तित्व के लिए लड़ा है। अपने करोडों लोग के अमानवीय अत्याचार सहने। उनके मरने का इतिहास हमारे संमुख है। बहुत लोंगो के इस सत्य को ढ़कने के। लीपापोती के प्रयास से यह दर्द और बढ़ जाता है कि ये कौन लोग हैं जो स्टाकहोम सिंड्रोम से ग्रसित हैं जो अपने शोषकों का ही महिमा मंडन करते हैं।

(तेनजिन त्सुंदे न तिब्बत में पैदा हुए, न कभी तिब्बत गए लेकिन मरना चाहते हैं तिब्बत में। तेनजिन हजारों शरणार्थी तिब्बतियों के की आवाज़ हैं। तेनजिन त्सुंदे की कविताएं किसी तिब्बती से पूछिए कैसी होती हैं! एक कविता रोज़ में आज तेनजिन त्सुंदे की एक कविता।

निर्वासन का घर

चू रही थी हमारी खपरैलों वाली छत

और चार दीवारें ढह जाने की धमकी दे रही थीं

लेकिन हमें बहुत जल्द लौट जाना था अपने घर।

हमने अपने घरों के बाहर

पपीते उगाए,

बगीचे में मिर्चें,

और बाड़ों के वास्ते चंगमा(1)

तब गौशालों की फूंस ढकी छत से लुढ़कते आए कद्दू

नांदों से लडख़ड़ाते निकले बछड़े,

छत पर घास

फलियों में कल्ले फूटे

और बेलें दीवारों पर चढऩे लगीं,

खिड़की से होकर रेंगते आने लगे मनीप्लाण्ट,

ऐसा लगता है हमारे घरों की जड़ें उग आई हों।

बाड़ें अब बदल चुकी हैं जंगल में

अब मैं कैसे बताऊं अपने बच्चों को

कि कहाँ से आये थे हम ?

1। बेंत जैसा लचीले तना वाला एक पेड़

[मूल रचना, इंग्लिश- तेनजिन त्सुंदे, हिंदी अनुवाद- अशोक पांडे]

कितना दर्द छुपा है इन पंक्तियों में। आखिर यह दर्द क्या है। क्यों है। यह अपनी भूमि से। अपनी पहचान से निर्वासन का दर्द। वह दर्द जो कश्मीरी हिंदुओं का भी है।जो अपने हजारों साल के बसाहट से बलपूर्वक हटा दिए गए। क्योंकि कभी एक दूर्दांत लुटेरा आया और उसने इनका जातीय नरसंहार कर दिया। बारंबार किया ।क्योंकि उसकी वर्चस्व की भूख बहुत बड़ी है।वह स्वयं का ही विस्तार चाहता है। साम्राज्य चाहता है। वह समस्त भूमि को मात्र अपने लिए निगल लेना चाहता है।

वह दर्द। कि हम टुकड़ों में बंटते रहे हैं। और यह वह मंशा है कि इसका अंत अब भी नजर नहीं आता है।

यह एक अनैतिकता भरा। अमानवीय कृत्य है। लेकिन आश्चर्य यह है कि हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां पीड़ित की सुनवाई नहीं है। बल्कि हमारे बीच ही तरह तरह के लोग कुकुरमुत्तों की तरह उगते रहते हैं जो इसकी चर्चा को भी दबाना चाहते है।जो खुल्ले में आतताइयों के समर्थन में खड़ा हो जाता है। सबको मारकर हमारी कब्र खोदना चाहता है। हमारी पहचान ही मिटा देना चाहता है। 

उसे हमारा लूटा हुआ घर इस अहसास से भर देता है कि वह विजेता है। पर ऐ जालिमों। यह सुन लो। इतिहास कभी किसी को माफ नहीं करता।जिस-जिस ने किसी का घर लूटा। किसी की आंखों में आंसू भरे।वह अपनी तीसरी पीढ़ी के बाद सिर्फ पतन ही देखता है।सिर्फ पतन। 

न्याय के घर में देर है। अंधेर नहीं। पाप किसी का भी हो।वह निर्द्वंद्व कभी नहीं रह सकता।

कभी नहीं। उसके पापों की भरपाई उसकी आने वाली पीढियां तब तक करती हैं। जब तक उनका स्वयं का वजूद खत्म नहीं हो जाता है।

सनद् रहा है। सनद् रहेगा। कि आज तक कोई व्यक्ति। कोई समाज। कोई देश। अमानवीय बल से अनंत काल तक न रहा है। न रहेगा।

सत्य ही अंततः विजयी होता है।देर कितनी भी लगे। हर एक गिरने वाले आंसू का हिसाब होता ही होता है। यह उन आंखों से भी खून बन कर टपकेगा। हिसाब तो होकर ही रहता है भगवान के दरबार में। 

हम तब भी शायद खुश नहीं होंगे क्योंकि हमारी मानवीयता कभी मरती नहीं। पर अब यह हम देखेंगे। और अवश्य देखना चाहते हैं,

क्योंकि सहनशीलता की भी तो पराकाष्ठा होती है। क्या नहीं।?


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