धत् सारे की
धत् सारे की
सुबह छः बजे निरंतर बजती फोन की घंटी ने उनकी नींद तोड़ दी, वे एकदम झुंझला उठे, साला...न दिन चैन न रात चैन, जबसे पत्रकारिता के पेशे में आएं है कुत्ते की जिंदगी हो गई है। कभी संपादक दुरदुराता है कभी राजनैतिक नेता और वह मन से जानते थे कि औकात दोनों की ही जरा भी नहीं है। ये वह कुत्ते हैं जो वहीं लोटते हैं जहां हड्डी की झलक भी दिख जाए।
कल आधी रात तक कवरेज करते रहे, एक बेईमान राजनेता की गिरफ्तारी का, जो मनीलांड्रिंग के केस में फंसा हुआ है और गिरफ्तारी को भी महिमामंडित करवाने के लिए इधर से उधर भाग रहा था और उनके साथ भाग रही थी जनता, भाग रही थी पत्रकारिता, आधी रात तक जनता मजे ले रही थी...और संपादक इसे भी सनसनी बनाने की कवायद करवा रहे थे।
छिः नेता और संपादक के घटियापन की पराकाष्ठा में लगातार भागते-भागते वह थक गए थे, पर क्या करते, जब इसे ही रोजी-रोटी का माध्यम चुन लिया था...तो पिसना भी नियति है।
कौन मर गया है इतनी सुबह, झुंझलाते हुए फोन उठाना ही पड़ा, दूसरी तरफ साथी पत्रकार था।
" क्या है बे, सुबह-सुबह भूकंप आ गया है क्या कहीं जरा तो चैन लेने दिया करो"
" अबे उठ, दुनिया हिल रही है...जरा इंडिया टूडे का मेन पेज पढ़...होश उड़ जाऐंगे"
" क्यों, क्या आसमान गिर गया है कि धरती पलट गई है, बता तो सही"
" बता रहा हूं...अपने प्रकाश बाबू को फैमन एवार्ड मिल गया है, फ्रंट पेज पर पूरा कवरेज उन्हीं के नाम है...समझा "!!
एक क्षण अचंभित रहने के बाद उन्होंने कहा" " अच्छा... तो बिक ही गई उनकी घृणा और चाटुकारिता"
" बड़ी ऊँची कीमत लगी है "
" हां यार" बेच तो बीस बरस से रहा था "
" इनाम अब मिला है "
" अब बहुत से लोगों के और काम साधेंगे"
" बहुत बड़े लोगों की सिफारिश लगी थी।" "आखिर इसी एजेंडे पर पिछले बीस साल से कगो-ध्यानम कर रहा था...आज फल मिल ही गया।"
" ठीक है... रख फोन, देखता हूं"
" साला "बुदबुदाते हुए फोन काटा, फिर मन ही मन बोले" काश...कहीं ईमानदारी और नैतिकता भी बिकती"
" तिलक तो रंगे सियारों का ही होता है"
" धत् सारे की, बिकता आखिर मुलम्मा ही है"
" असल की कद्र ही नहीं ??