बेटी

बेटी

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आज साहित्य सम्मेलन से पापा के पास काव्य गोष्ठी के लिए फोन आया। मुझे आमंत्रण मिला था। पापा मम्मी के पास जा  दबे स्वर में बोले ,"देखो सुहानी की मां दिल्ली से सुहानी के लिए काव्य पाठ करने का आमंत्रण आया है," बोलो क्या करें। मां ने तो पुरी बात भी नहीं सुनी और बोली"करना क्या बेटी है कहीं बाहर नहीं भेजना।

पढ़ लिख लें, वो ही बहुत है।"

मैं मां बापू की बात सुन रही थी। कुछ देर तक चुप रही। मन में अन्तर्द्वन्द चलता रहा। क्या करूं क्या ना करूं। मैं पापा के पास गयी और मैंने बड़े तरिके से उन्हें समझाने की कोशिश की पर वो नहीं माने। मैं रात भर इसी सोच में व्यस्त रही कि मैं बेटी हूं, शायद इसलिए ये दोनों मुझे भेजने को तैयार नहीं है। 

मुझे उदास देख पापा मम्मी से बोले,"मुझे तो इसकी ये खामोशी बर्दाश्त नहीं होती।बेटी है तो क्या हुआ, एक अवसर तो इसको देना ही चाहिए। "पापा मुझे वहां ले गए, मैंने जब काव्य पाठ खत्म किया तो सभागार तालियों की ध्वनि से गूंज उठा।यह देख पापा के आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने मच पर आ मुझे गले लगा लिया और बोले।" तुम उड़ो, बहुत उठो पर मर्यादा में रहकर और यह सुनकर मैं पापा से लिपट गई।


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