"बचपन का दोस्त"
"बचपन का दोस्त"


मैं चार साल की थी जब मेरे मम्मा-पापा मुझे मेरी नानी के पास छोड़ गये क्यूंकि पापा जॉब करते थे और मम्मा के लिए मेरे छोटे भाई कबीर और मुझे दोनों को संभालना संभव नहीं था।जब भी मैं मम्मा को फोन करती मैं बस उनसे यही पूछती कि आप कब आओगे और वो हर बार कहती कि हम बस कुछ ही दिनों में आने वाले हैं,आप अच्छे बच्चों की तरह पढा़ई करना और नानी को बिल्कुल तंग मत करना।
मैं उन्हें बहुत मिस करती थी।स्कूल में भी हमेशा उदास रहती थी।इसलिए मेरा कोई फ्रेंड भी नहीं था।एक दिन स्कूल में पर्यावरण दिवस के मौके पर पौधे बाँटे गये और बडा़ सा भाषण दिया गया जिनमें से एक बात मेरे मासूम से मन के किसी गहरे से कोने में बस गयी कि"पेड़ आपके सबसे अच्छे दोस्त बन सकते हैं"
तभी मैनें डिसीजन लिया कि मैं भी एक पौधा लगाऊंगी। स्कूल से मुझे जो बेर का पौधा मिला था मैंने उसे घर के पीछे की उस खाली जगह में लगा दिया जहाँ नानी सब्जी उगाया करती थी ।
मैंने उसका नाम रखा बेस्टी!!
उस दिन से मैंने अपनी हर बात बेस्टी से शेयर करनी शुरू कर दी।मैं रोज सुबह जल्दी उठकर बेस्टी को गुड माँर्निंग कहती,पानी देती और स्कूल जाते समय अलविदा कहती।अपना होमवर्क उसे पढ़कर सुनाती ताकि वो नन्ही सी उम्र में सब कुछ सीख जायें।एक ही साल में बेस्टी की हाईट मुझसे बडी़ हो गयी।
जैसे-जैसे वक्त गुजरा हमारा रिश्ता और भी गहरा होता चला गया।नानी की डेथ के बाद पापा मुझे अपने साथ दिल्ली ले आए पर बेस्टी वहीं रह गया। कुछ दिन मुझे बहुत याद आयी उसकी
पर फिर मैं नये स्कूल और नये दोस्तों के बीच खुश रहने लगी। हाँ जब कभी-कभार याद आती उसकी तो मैं उन लम्हों को याद करके मन बहला लेती जो मैंने बेस्टी के साथ बिताए थे।
इसी तरह समय बीतता गया और मैंने अपना काँलेज भी पूरा कर लिया पर फिर कभी बेस्टी से मिलने का मौका नहीं मिला।
दो महिने बाद मुझे उसी शहर में जॉब मिल गयी जहाँ मेरा बेस्टी इतने वक्त से मेरा वेट कर रहा था। मैं बहुत खुश थी उस दिन, मानो मैं उड़ रही थी।जैसे ही मैं वहाँ पहुँची,एक अजीब सा डर पैदा हुआ मेरे मन में कि अगर उसने पूछा कि इतने दिन क्यों नहीं मिली मैं उससे,तो क्या जवाब दूंगी। पर उससे मिलने के उतावलेपन ने मेरे इस डर को पीछे धकेल दिया।
मैंनें आहिस्ता से अपने बचपन के आशियानें में कदम रखा तो यूँ लगा जैसे मेरा खामोश सा बचपन गुनगुना रहा हो।मैंने उस दरवाजे को ढूंढनें की कोशिश की जहाँ से मैं बेस्टी के पास जाया करती थी पर अब वहाँ एक दीवार थी जिसकी दरारें उस गेट का मिटा हुआ वजूद बयां कर रही थी।
मैं घबराहट में दौड़ती हुई छत पर गयी तो उस आसमान छूती अट्टालिका को देखकर एकबारगी मेरी धड़कनें थम गयी और एक खामोश सी आवाज आयी कि"क्या दोस्ती निभाना सिर्फ मेरा फर्ज था,तुम्हारा नहीं ?
उस अफसोस को दफनाने और फिर से वही खूबसूरत सी जिन्दगी जीने की कोशिश में मैंनें बहुत सारे दरख्त लगाए पर किसी के साथ वो अपनापन महसूस नहीं हुआ जो बेस्टी के साथ महसूस होता था..........।