chandraprabha kumar

Abstract

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chandraprabha kumar

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बाऊजी ने कहा था-भाग ३५

बाऊजी ने कहा था-भाग ३५

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यह मकान जिसमें जीजी रह रही हैं, उन्होंने रिटायरमेंट के बाद बनवाया था। इस मकान ने उन्हें पूरा सहारा दिया। उनका कहना है कि मकान बनवाने का निर्णय बड़ा दूरदर्शिता पूर्ण रहा। पहिले मकान नहीं बनवा सके, क्योंकि पैसा ही नहीं था। जब तक नौकरी रही, जीजा जी सारा पैसा घर भेजते रहे थे जिससे उनका माता- पिता का सब खर्चा चला व सब भाई बहिनों की पढ़ाई व शादियॉं हुईं। 

जीजी का कहना है कि सारी जिम्मेदारियॉं पूरी करने के बाद यह मकान बनाया था। अब इसमें किसी का लेना - देना नहीं है। जीजा जी रिटायरमेंट के बाद मकान बनवाने के बाद से इसमें रह रहे थे। इस बात को कोई पैंतीस वर्ष से ऊपर हो गये। जीजा जी जाने से पहिले ये मकान उनके नाम लिख गये। अब यह मकान उनका अपना है। 

जीजी बताती हैं कि -“ वयह मकान मैंने खुद खड़े होकर अपने आराम के हिसाब से बनवाया था। दो कमरों का छोटा सा मकान है पर पूरी सुविधा है। रसोई बहुत बड़ी व लम्बी है। यह सब अपने लिये बनवाया था। बहुत आराम से खाना बनाया जा सकता है। गैस का चूल्हा किधर रहेगा, पानी किधर रहेगा, इस सबका ध्यान रखा गया था। हमेशा अपने हाथ से रसोई बनाई, सब काम स्वयं किया । अब जब से बिस्तरे पर हूँ , यह रसोई नौकरों के काम आ रही है। मैं ठीक हो जाऊँ तो सब काम अपने से करूँगी। अभी खाना जो मिलता है, ठीक बना नहीं होता। पर क्या करूँ ? ज़्यादा कुछ कह भी नहीं सकते। जितना काम हो रहा है, वह भी तब ठीक नहीं होगा। उन्हें गये नौ साल से ऊपर हो गया, सारी ज़िम्मेदारी खुद संभाल रही हूँ। जब तक मैं ठीक थी सब साफ़ सफ़ाई ठीक थी। अब पहिले अपने की ठीक करूँ या और बातें देखूँ “।

जीजी को इस बात का दुःख था कि “जीजाजी ने अपने परिवार के लिये इतना किया, सबको पढ़ा लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किया, शादी ब्याह किया, पर उनकी लम्बी बीमारी में कोई उन्हें देखने या हाल-चाल पूछने नहीं आया। जीजाजी को गये नौ- दस वर्ष हो गये , लेकिन जीजी का हाल- चाल पूछने भी कोई नहीं आया। 

 लेकिन अब उनके जाने के बाद सब आकर खड़े हो जायेंगे क़ब्ज़ा करने कि हमारी ताई थी, मामी थी, भाभी थी। जीजी का कहना था कि मकान उनका है वे चाहे जो करें , उनके जाने के बाद ससुराल वाले हक़ जमाने क्यों आयें ? यह पैतृक सम्पत्ति नहीं हैं। स्व अर्जित सम्पत्ति है। इसमें जीजी की भी पूरी मेहनत व परिश्रम लगा है। उन्होंने किफायत से परिश्रम करके घर चलाया है ,इसमें उनकी ज़्यादा मेहनत लगी है। जीजाजी की कमाई से उन्हें एक पैसे का भी आराम नहीं मिला, खाने तक के लाले पड़े रहे। इतने संघर्षों के बाद किसी तरह यह एकमात्र मकान हुआ तो अब ससुराल वालों का यह मकान कैसे हो जायेगा ? यदि कोई क़ानून है तो उसमें सुधार होना चाहिये। जो मेरे भाई बहिन मेरा ख़्याल रख रहे हैं उन्हें यह मिलना चाहिये।”

जीजी के विचार तो क्रान्तिकारी हैं , पर सही हैं। पत्नी के काम को काम नहीं समझा जाता, उसका कोई आर्थिक मूल्य नहीं है। पति के हाथ में सारी आर्थिक शक्ति है। पति यदि चाहे तो अपनी पत्नी की उपेक्षा करके किसी को भी अपनी सम्पत्ति दे सकता है। क़ानून में सम्पत्ति पर पत्नी का भी समान हक़ पति के रहते होना चाहिये। वह सम्पत्ति पत्नी की भी उतनी ही है जितनी पति की, दोनों का श्रम उसमें लगा है। बिना वसीयत के केवल पति के परिवार वाले कैसे हक़दार हो गये ? पत्नी के परिवार वाले क्यों नहीं ?

जीजी के पास जो कज़िन भाई आते रहते हैं और जो नर्स ड्यूटी पर रहती हैं उनसे पता चला कि कुछ दिन पहिले जीजी की एक दौरानी उनसे मिलने आईं थीं। वे बाहर विदेश में अपने पति व बेटे के साथ रहती हैं। पति बीमार हो गये तो विदेश में बेटे के पास रहने चले गये। वहीं से वे कुछ सालों बाद लौटकर आईं थीं, यहॉं का अपना मकान बेचकर वापिस जाने के लिये। 

पता चला कि वे कोई नौ- दस साल बाद लौटकर आयीं थीं। आकर जीजी के पैरों पर सिर रखकर रोने लगीं ,कहने लगीं-“ आप इतनी बीमार रहीं , हमें पता तक नहीं चला। आपने हम सबके लिये इतना किया , हम आपके लिये कुछ नहीं कर सके। भाई साहब ने रिटायरमेंट तक सारा पैसा अपने घर माता जी व हम सबके लिये भेजा अपने लिये कुछ नहीं रखा, कैसी मुसीबत से आपने यह सब किया, यह हमें नहीं पता। इतना बड़ा त्याग आपने सबके लिये किया और कभी कुछ जताया तक नहीं। हम आपका ऋण कभी नहीं चुका सकते।”

वे और भी अपना दुःखड़ा रोने लगीं ,कहने लगीं कि पति से उनकी नहीं बनती, अब उन्हें छोड़कर वे बेटे के साथ रहती हैं। उन्होंने कहा- “ये कुछ किसी की नहीं सुनते। इतने बीमार हैं , फिर भी अपने मन की करते हैं। एक बार “ना” निकल गया तो फिर “हॉं” नहीं हो सकता। अब एक नौकर उनकी देखभाल के लिये रख दिया है। मैं उनके साथ नहीं रह सकती। बेटे के घर के पास ही अलग घर ले लिया है, जिसमें वे रहते हैं। यहॉं का मकान बेचकर हम अब जा रहे हैं, लौटकर आना नहीं है”। 

 वे तो चली गईं, जीजी सोचती रह गईं कि पति की बीमारी में उन्हें छोड़ने का निर्णय कैसे ले लिया। यह सही था कि पति से उनकी कभी नहीं पटी थी। अब बेटे के साथ रह रही थीं।

 उनके आने से यह तो पता चला कि जीजाजी के और भाई भी संवेदना शून्य थे। छोटे भाई की पत्नी ने काफ़ी दुखी होकर पति को छोड़कर बेटे के पास रहने का निर्णय लिया होगा। जबकि छोटे भाई की नौकरी अच्छी थी और उन्हें कभी अपने पैसे घर माता जी को नहीं भेजने पड़े, न घर की कोई और ज़िम्मेदारी निभानी पड़ी। पति के व्यवहार से तंग आकर ही पत्नी छोड़ गई। 

यहॉं जीजी ने सब तरह के कष्ट झेले, पति से एकदम अनमेल विवाह था , कोई तुलना नहीं थी ,फिर भी अपने पिता के घर के संस्कारों की वजह से सब निभा ले गईं, पति के कड़वे वचन सुनकर भी उनकी सेवा में रत रहीं। 


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