Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

Nisha Singh

Abstract

4.1  

Nisha Singh

Abstract

अतीत का साया

अतीत का साया

5 mins
382


डियर शुचि

रात के करीब 2 बज रहे हैं। तुम्हें कमरे में सोता हुआ छोड़ कर मैं यहाँ अपने स्ट्डी रूम में अकेला बैठा हूँ। आज कुछ कहना चाहता था तुम से। या यूँ कहूँ कि काफ़ी कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं पाया। शब्द नहीं मिले कि तुम्हें कैसे बताऊँ और कैसे समझाऊँ। जब तुम ये लेटर पढ़ रही होगी मैं जा चुका होऊँगा पर उम्मीद करता हूँ कि तुम मेरी बात समझ पाओगी।

एक साल पहले ही शादी हुई हमारी, पर मैं तुम्हें उतना वक़्त नहीं दे पाता जितना तुम डिज़र्व करती हो। मेरा काम हमेशा हमारी खुशियों के आड़े आता रहता है ये बात मैं अच्छी तरह समझता हूँ। पर क्या करूँ काम भी तो तुम्हारे लिये ही करता हूँ। हमारे बेहतर भविष्य के लिये करता हूँ। तुम इस बात पर अक्सर नाराज़ हो जाती हो। अब तुम कहोगी कि मनाने पर मान भी तो जाती हो तो हाँ भई मान लिया कि मान भी जाती हो।

आज भी तुम नाराज़ हो गईं। ये नहीं कहूँगा कि बेबुनियाद बात पर। बात बिल्कुल भी बेबुनियाद नहीं थी। मेरे अतीत के बारे में जानंने का तुम्हारा पूरा हक़ है। तुम्हें जानना भी चाहिये।

हाँ शुचि... कुछ ऐसी बातें हैं जो मैंने तुमसे कभी साझा नहीं कीं। सोचता था कि अगर कहा तो कहीं अपनी अहमियत ना खो दूँ। तुम कहती हो ना कि तुम जब भी मुझसे मेरे बचपन के बारे में पूछती हो तो मैं हमेशा टाल देता हूँ। सच कहती हो तुम, मैं हमेशा तुम्हें टाल ही देता हूँ। क्योंकि मैं तुम्हें अपनी ज़िंदगी के उस अंधेरे से दूर रखना चाहता हूँ जिसने कभी मुझे चारों तरफ़ से घेर रखा था। पर मेरी ज़िंदगी के हर पहलू को जानने का हक़ है तुम्हारा...

आज जब तुमने कहा कि चाची का फ़ोन आया था और वो मयंक को हमारे पास आगे की पढ़ाई के लिये भेजना चाहती हैं तो मैंने तुमसे ये कह कर मना कर दिया कि मैं किसी का दायत्व नहीं लेना चाहता। कहना तो और भी बहुत कुछ चाहता था पर नहीं कह सका। सोचा कि कहीं गुस्से में ऐसा कुछ मेरे मुँह से ना निकल जाये जो मुझे मेरी पत्नी की नज़रों में बौना बना दे। पर क्रोध कोई छिपा सकने लायक चीज़ तो होती नहीं उस पर भी अगर नफ़रत का रंग चढ़ा हो तो छिपाना और भी मुश्किल हो जाता है।

मेरे लाख छिपाने के बावजूद भी तुम मेरे मन के भावों को भांप गई। जब तुमने कहा कि तुम शायद कुछ छिपा रहे हो तो मैं समझ नहीं पाया कि क्या कहूँ और तुम पर बरस पड़ा।

तुमने सही पहचाना। मैं जो छिपा रहा हूँ वो मेरे अतीत का साया है शुचि, मेरे अतीत का साया। आज मैं तुम्हें उसी काले साये से मिलवा रहा हूँ। देख लो कि इस सिविल इंजीनियर का बीता हुआ वक़्त कैसा था...

मैं सिर्फ़ 3 साल का था जब पापा नहीं रहे। जब बाप के ना होने का मतलब भी नहीं जानता था तब से ही मुझे इस बात से चिढ़ थी कि लोग मुझे ‘बेचारे का बाप नहीं है’ कहते थे। धीरे धीरे इस बात का भी एहसास होने लगा कि बाप ना होने का क्या मतलब है। कोई मुझे मुफ़्त का नौकर समझता तो कोई लाचार गरीब समझ के मुझ पे दया करने चला आता। नौकर बनना तब भी मैं बर्दाश्त कर लेता था पर लोगों की दया मुझसे कभी सहन नहीं होती थी शुचि,कभी सहन नहीं होती थी। उम्र के साथ साथ मेरा गुस्सा भी बढ़ने लगा। मोहल्ले के एक लड़के को एक बार पीट दिया था मैंने। उसकी आँखों में डर क्या देखा, मुझे डर से मोहब्बत हो गई। जिस उम्र में बच्चे ये सोचते हैं कि 10वीं के बाद कौनसा सब्जेक्ट लेना है उस उम्र में मुझे गुंडे का टैग मिल चुका था।

जानती हो शुचि, बाहरवाले कितनी ही गालियाँ क्यों ना दें कितने ही व्यंग के बाण क्यों ना चलायें कभी उतना बुरा नहीं लगता जितना किसी अपने का लगता है।

मयंक तब छोटा था। मेरे साथ एक दिन घर के आँगन में खेल रहा था। खेलते खेलते गिर गया और ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। मैं उसे चुप कराने की कोशिश कर ही रहा था कि चाची बाहर निकल आईं। मुझ पे चिल्लाने लगीं। घर के सब लोग बाहर निकल आये। सबके सामने वो माँ से बोलीं कि ‘दूर रखो अपने गुंडे को मेरे बच्चों से मैं नहीं चाहती जैसा खुद है मेरे बच्चे को भी बिगाड़ दे’। मयंक को गोद में उठा कर वो अंदर चली गईं। किसी ने उन्हें कुछ नहीं कहा। सब चुप चाप बुत बने खड़े रहे, चाचा भी। माँ के निरादर का भी किसी ने विरोध नहीं किया।

मैं किसी का बेटा नहीं था शुचि ? क्या मैं बच्चा नहीं था ? क्या मुझे सम्भालने का दायत्व किसी का नहीं था ? पापा के ना होने से कया सबकी ज़िम्मेदारियाँ खत्म हो गईं थीं ? क्या मुझे सही रास्ता दिखाना किसी का फ़र्ज़ नहीं था ? जब मैं किसी की ज़िम्मेदारी नहीं था तो मैं क्यों बेमतलब का बोझ ढ़ोता फिरूं ?

और फिर मैं तो गुंडा हूँ। अब क्यों भेज रही हैं मेरे पास ? कह देना उनसे कि ना भेजें, कहीं इस गुंडे के साथ उनका बेटा बिगड़ ना जाये। मैं कभी माफ़ नहीं करुंगा उन्हें, कभी नहीं। उस दिन के बाद मैं अपने ही घर मैं बेगाना सा हो गया। बाप के साये से तो पहले ही महरूम था, माँ ने भी खुद से दूर कर दिया। कभी माफ़ नहीं कर पाउंगा मैं उन्हें।

और किसी से तो मुझे कोई उम्मीद ना थी,ना है। पर तुम से उम्मीद लगाने का हक़ है मेरा। अब चलता हूँ फ्लाइट का वक़्त हो रहा है।                                                                                        तुम्हारा और सिर्फ़ तुम्हारा      

    अभय

  


Rate this content
Log in

More hindi story from Nisha Singh

Similar hindi story from Abstract