अम्मा की कोशिश और रहीम का दोहा
अम्मा की कोशिश और रहीम का दोहा


जैसे-जैसे छोटे मामा जी के आने के दिन करीब आ रहे थे वैसे-वैसे मेरी बेटी को मानों खुशियों के पंख मिल गये थे। स्कूल से आते ही उसकी कल्पना उड़ान भरने लगती! इस बार मामा जी के साथ कहां जाना है, क्या खाना है, उन्हीं के पास सोना है, बचपन की बातें पूछनी हैं, नानी मां की मार क्यूं पड़ती थी और न जाने क्या-क्या। इन्हीं कल्पनाओं के बीच मुझे एक सूची थमा दी गई कि मामा जी को क्या बना कर खिलाना है। सूची के साथ एक फरमान भी जारी हो गया-अब नानी मां तो हैं नहीं कि सब तैयारी तुम्हे नहीं करनी पड़ेगी तो ‘‘सोच लो क्या-क्या बनाओगी और फिर चिंता मत करो बड़ी होकर तो मुझे ही तुम दोनों को बनाकर खिलाना है, लेकिन तबतक तुम बनाकर खिलाओगी और मैं मामा जी के साथ मजे करूॅंगी।’’ तब तक तो मेरा आदेश मानना ही पड़ेगा। उसकी बड़ों जैसी बातें सुनकर मेरे भीगे मन में यादों के अंकुर फूट पड़े। ह्रदय इस अहसास से आह्लादित हो गया कि उसे अपनी संभावित जिंदगी में अपनों का खयाल है और परिवार के प्रति उसके इस अहसास को अपने संस्कारों से पल्लवित करने की जिम्मेदारी मेरे कांधे पर ही है।
देसी खाना, मोटा अनाज, हरी सब्जियां उनका स्वाद अम्मा ने अपनी पाक कला से हमारी रग-रग में ऐसा भर दिया है कि ज्वार की रोटी में भरी उड़द की दाल के साथ अगर हरी धनिया की चटनी और आलू-बैंगन का भुरता हम भाई बहनों को मिल जाये तो छप्पन भोग से बेहतर लगता है। अम्मा के हाथ से बना नारी का साग, या फिर लहसुन के तड़के वाला सरसों का साग हो सबमें जाने कैसे जादुई स्वाद भर देती थीं।
मेरे मन में भी हुलस उठी कि अम्मा की पाककला की धरोहर को पूरा न सही पर अपनाने की कोशिश तो की ही जा सकती है। सो पहले दिन सफर की थकान उतारने के लिए साधारण दाल-चावल, दूसरे दिन चावल के फरे, फिर चनादाल के पराठे संग कद्दू की सब्जी, कटहल की पकौड़ी और ऐसे ही कुछ खानों की सूची तैयार कर ली। बेटी भी खुश कि चलो जबतक मामा जी रहेंगे तबतक मां खाने में भिन्नता रखेगी नही ंतो अपने ऑफिस के चक्कर में कई बार तो सिर्फ दही रोटी या नाश्ते और दोपहर के खाने में पोहे से ही काम चलाना पड़ता है।
आखिर इंतज़ार खत्म हुआ और लाडले मामाजी का स्वागत दरवाजे पर उनके कांधे पर लटक कर किया गया। घर में मानो एक रौनक सी छा गई क्यों कि हम दोनों मुर्गी सी मां-बेटी के बीच कुछ दिनों के लिए ही सही पर छोटे दद्दू का आना वैसे ही था जैसे घूरे पर से दाना खाते-खाते कोई बढ़िया सी बाजरी बिखेर दे। वरना वही डेली नियमावली, यथा स्कूल जाना, ऑफिस जाना, शाम को अपनी क्लास में जाना, पढ़ाई करना और थक कर सो जाना। खैर! एक-दो बार के खाने से लगा कि शायद मैं लाडो बिटिया और उनके मामा जी दोनों को प्रभावित कर पाई। अब बारी उन दोनों के फरमाइशी खाने की थी क्योंकि मैं टेस्ट में पास हो चुकी थी। एक शाम मामा भांजी मुझे बिना बताये गायब हो गये। लौटे तो थैले से खूबसूरती हरी-हरी सरसों की पत्तियां मानों लहलहा करके मुझे देख रही थीं। फरमान जारी हुआ कि बड़े प्यार से सरसों का साग लाये हैं और बेसन की रोटी के साथ बस यही आज की दावत होगी। मैंने भी उतने ही प्यार से सरसों की पत्तियों को तैयार किया और अपनी बड़ी भाभी जी के फोन लगा दिया, कि साग कैसे बनाना है? वास्तव में साग बनाना आता था लेकिन मामा-भांजी की पसंद का साग बनाकर खिलाना सच में मन को आनंदित कर जाता। कुल मिलाकर बड़ी भाभी जी ने अपने अनुभव जोड़े-‘‘बेटा धीमी आंच पर पकाना, सरसों जल्दी में अच्छी नहीं बनेगी, करारी कुरकुरी सब्जी के लिए उसका पानी सूख जाना चाहिये’’। मैंने बड़े मन से सब्जी को कुरकुरा बनाया, और छोटे दद्दू को बड़े गर्व से परोसा कि मैं भी अम्मा की बिटिया हूं, पाक कला में तो निपुण हो कर ही रहूंगी। फिर कद्दू और चने की दाल वाली सब्जी भी बनाई और उतने ही प्रेम से परोसी। तो फिर इसमें खास क्या हुआ? इन दोनों सब्जियों ने मेरे घर में रहीम जी के एक दोहे को नया रंग दे दिया। आप भी उसका आनंद लीजिये-
रहिमन लहिला की भली, जो परसै चितलाय, औ परसत मन मैला करै या न करै
पर सरसों का साग औ कद्दू की सब्जी दुनहूं जरि-बरि जांय।
साथियों आप समझ चुके होंगे कि दोनों सब्जियों का क्या हाल हुआ होगा। और मैं बस एक ही बात सोचती हूॅं-अम्मा तो अम्मा ही होती हैं। टेंडर, क्रीमिश, हरी-भरी।