अधूरी दास्ताँ
अधूरी दास्ताँ
चर चर की आवाज से दरवाजा खुलता है सामने बड़ी सी तीन मंजिला बिल्डिंग दिखाई देती है। बिल्डिंग में प्रवेश करते हुए तीस साल की शिवांगी की नजर वहां हॉल में लगे एक पुरानी तस्वीर पर जाती है। तस्वीर पर जमी धूल को शिवांगी वहीं पड़े हुए कपड़े से साफ करती है।
" इस तस्वीर में दादाजी और दादी जी दिखाई देती है साथ में परिवार का हर एक सदस्य भी मौजूद था "। दादा दादी जी के बीच में मेरी छोटी बहन बैठी हुई थी। मैं भी वही भीड़ में अपनी मां के पास थोड़ी शरमाई सी खड़ी थी। उम्र ऐसी जहां ख्वाब पंख फैलाए खड़े थे......!! " ना बचपन ना जवानी की दहलीज पर कुछ तो था जिससे दिल की धड़कने तेज होती थी......." !!
" किसी हैंडसम नौजवान को देखकर धड़कने तेज हो जाया करती थी। आज भी वही महसूस हो रहा था जो उस वक्त हुआ करता था जब निगाहें तस्वीरों पर जा अटकी उस शख्क पर जो दिलों जान से चाहता था मुझे......" !! हल्की सी मुस्कुराहट की आभा लिए फोटो की भीड़ से अलग खड़ा था। ना चाहते हुए भी वो इस तस्वीर का हिस्सा बन ही गया ....!!
" जिससे देख कर शिवांगी को आज भी वही बेचैनी महसूस हो रही थी " क्या यह वही है......? अभिषेक यही नाम था ना उसका.....!
उस प्रेम को शिवांगी आज भी महसूस कर सकती थी। कितना चाहता था अभिषेक पर जुबां पर कभी शिवांगी का नाम नहीं ला पाया......!! " कैसे मैं बयां करूं उस अधूरी प्रेम की दास्तां को ....."। प्रेम को शब्दों में पिरोना बहुत मुश्किल है आज मैने जाना इसे !! " प्रेम तो एहसास है जो आत्मा को छू जाती है जैसे अभिषेक का अनछुआ प्रेम मेरी आत्मा को छू गई......." ! काश अभिषेक इस प्रेम को नाम दे पाते तो आज मैं तुम्हारी अर्धांगिनी होती। सोचते सोचते शिवांगी अपने अतीत में चली जाती है जहां अभिषेक से पहली मुलाकात से लेकर बिछड़न को फिर से महसूस करती है।
" बात उन दिनों की हैं जब शिवांगी नौवीं कक्षा में पढ़ती थी। उम्र का एक ऐसा पड़ाव जहां मन ख्वाबों के झरोखों से अपने हमसफर को राजकुमार के भेष में आते देखती है। उसे महसूस कर तन बदन में एक अलग सी सनसनाहट होती है। ऐसी ही उम्र थी शिवांगी की बालमन जो किसी का कायल हो जाता। " चंचल काले मदमस्त नयन , घने काले बाल , गोरा रंग और उस पर से चेहरे की सादगी अभिषेक के दिल दिमाग में घर कर गई जब पहली दफा अभिषेक अपने छत से शिवांगी को देखा......." !! अभिषेक उन दिनों नया नया अपने गांव से शिवांगी के परोस में रहने आया था।
अभिषेक उच्च सरकारी नौकरी की तैयारी के लिए कानपुर आया था। पढ़ा लिखा होने की वजह से शिवांगी के माता पिता ने अभिषेक को शिवांगी को पढ़ाने के लिए एक टीचर के रूप में नियुक्त किया था। पढ़ाई के दौरान न जाने कब अभिषेक शिवांगी को दिलों जान से चाहने लगा पता ही नहीं चला।
शिवांगी भी अभिषेक के एहसासों को भाप चुकी थी पर परिवार की मर्यादा और समाज की रूढ़िवादियों की वजह से कभी अभिषेक को एहसास नहीं होने दिया की वो भी अभिषेक को चाहती है पर सच्ची मोहब्बत कहां चुप पाती है आशिक की नजरों से। अभिषेक कितनी बार अपने प्यार का इजहार करना चाहा पर वो भी झिझक जाता अपने संस्कारों की वजह से।
वक्त बीतता गया और खामोशियों में प्रेम परवान चढ़ता गया। अनछुए प्रेम की चाहत इतनी प्रबल थी की दोनों को प्रेम में एक नया आयाम मिल गया। आंखों से निकली बोली और होठों की चुपी दोनों के एहसासों को कागजों पर उखेड़ देती थी। पर जब इस प्रेम की थोड़ी भनक शिवांगी के परिवार को लगी तो उन्होंने अभिषेक का आना जाना बंद कर दिया।
अभिषेक बहुत ही संस्कारी और सभ्य घर का लड़का था। उसे अपने और शिवांगी की मर्यादा का भान था। वो नही चाहता था कि उसकी वजह से शिवांगी पर कोई भी आंच आए। उसके प्रेम का मतलब आत्मा से आत्मा का मिलन था ना की शारीरिक प्रेम। उसने तो सच्ची मोहब्बत की थी शिवांगी से इसलिए अपने प्रेम को अपने दिल में कैद करके खुद में मस्त हो गया।
वो वक्त भी तो था वैसा ही जहां प्यार करना गुनाह माना जाता था और उसकी सजा मौत मिलती थी। इसलिए अपनी अधूरी प्रेम की दास्तां को जुबां में दबा कर अभिषेक अपनी नौकरी की तैयारीयों में व्यस्त हो गया। इधर शिवांगी का दसवीं का रिजल्ट आया और उधर अभिषेक का नियुक्ति पत्र बैंक में पीओ के पद पर।
बिना किसी को कुछ बताएं दबी जुबान लेकर उस शहर से सदा के लिए चला गया। अपने प्रेम के कुछ प्यारे पल लेकर अभिषेक न जाने किस शहर गया आज तक वो एक राज ही रह गया। आज भी शिवांगी अपने अधूरे प्रेम की तलाश में बिन पानी के मछली की तरह छटपटा रही है इस उम्मीद में की एक न एक दिन उसका प्रेम उसे जरूर मिल जायेगा।

