Shalinee Pankaj

Abstract

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Shalinee Pankaj

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आम की छाँव

आम की छाँव

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हमरे घर पर खूब सारे पेड़ लगे है। नींबू, चीकू, अमरूद, पीपल, बरगद, नीम, आँवला सब कुछ बीचो बीच तो कुछ किनारे पर लगे है पर सब अपने दायरे में है, और इन सबसे अलग वो आम का पेड़ जो इस तरह फैला है कि एक पैर घर में तो दूसरा बाहर हो। आम का पेड़ पूरे समय बाउंड्रीवाल से बाहर झांकता रहता न जाने किसके इंतजार में। जबकि बाउंड्रीवाल से कतारबद्ध अशोक भी लगा है।

पर अपनी घमण्ड में सीधे आसमान को छूता हुआ। छत की तरफ देखता भी नही उसकी पूरी कोशिश अपना कद छत से ऊंचा करने की रहती। जो भी हो पर अपनी सुंदरता से घर की शोभा बढ़ाता। जब भी उसे देखती "अशोक तु शोक मिटा"याद आ जाता। माता सीता जब रावण की अशोक वाटिका में थी तो ये अशोक ही उनके साथ था। मुझे ये अशोक विरह का प्रतीक लगता था। बाहर से सुंदर पर अंदर से खुद में उलझा की कहीं सांप लिपट जाये तो दिखाई भी न दे।

आम के पेड़ के बाहर झांकने के दुःसाहस की वजह से गर्मियों में एक भी आम हमे नही मिलता था।

मुहल्ले के बच्चे कभी दीवाल पर चढ़ तो कभी पत्थर से आम गिरा लेते थे। और अगर कुछ आम बच भी जाता तो बन्दरो का निवाला बन जाता। कभी कभी गुस्सा आता था कि ये आम का पेड़ ही कटवा दूँ।

पर उस आम के पेड़ में कोयल रहती थी औऱ उसकी मधुर आवाज मन को मोह लेती थी। कमरे की खिड़की के सामने नींबू का पेड़ उसमे भी कभी कभी आकर बैठती थी कोयल। घण्टो खिड़की से उसे निहारती रहती कभी कभी उसकी कुक को मोबाइल में रिकार्ड करती तो कभी उसी समय अपने प्रिय को कॉल करती ताकि मेरी आवाज की खनक के साथ वो भी कोयल की मीठी तान सुन ले। बचपन से एक आकर्षण था कोयल की मधुर आवाज सुनना और उसे देखना। और जब घर के आम के पेड़ में ही उसका बसेरा हो तो क्या कहना।

यही वजह थी कि आम के पेड़ के मनमानियों के बाद भी उसे बरदास्त करना।

बाकी मौसम में थोड़ा ऊंघते, आलस्य से भरा रहता पर गर्मी के मौसम में इतना अधिक व्यस्त हो जाता कि पूछो मत। खुद का वजन सम्हाले नही सम्हलता इतना मउर से लद जाता। तब डालियां और झुक जाती दीवाल के उस पार और नालियों से आने वाली गन्दी बदबू को दूर करती मउर की सुगंध के साथ कितने दूर तक इसकी मीठी खुश्बू वातावरण को सुगन्धित करती। मउर के आते ही कोयल की कुक भी सुनाई देती।

अपनी तान से ईश्क का रस घोलती हवाओं में जैसे इस मौसम का बेसब्री से इंतजार करती वह झूम उठती खुशी से और इस डाल से उस डाल फुदक फुदक कर गाती मीठा तराना। उसके मीठे तान के साथ ही आम की डालियाँ और लहराती, इठलाती पर मस्ती में प्रेम में झूमती पास के अमरूद व लताओं पे डोलती सी तो कभी दीवाल के उस पार नन्हे को आकर्षित करती अपनी भाषा मे गुनगुनाती रहती।

हमारा शहर इस वर्ष सूखाग्रस्त घोषित हो चुका था। कम वर्षा की वजह से सब अस्त व्यस्त जनजीवन और हाइवे में सड़क निर्माण कार्य चल रहा था। राह के पूरे वृक्षों को बढ़ी बेदर्दी से काट दिया गया। इतनी सघनता थी , न जाने कितने वर्ष लगे अब नन्हे पौधों

को बढ़ा होने में पूरे स्कूल से घर आते समय पूरे रास्ते दुखी रहती। और जब घर पहुँचती तो अपनी बगिया को हरा भरा देख मन प्रफुल्लित हो जाता। हमारा घर शहर से थोड़ा दूर था। अगर कोई बस से आये तो लगभग डेढ़ किलोमीटर पद यात्रा करना पड़ता। मैं जब भी रिक्शा पकड़ घर आती तो रिक्शाचालक कुछ देर दीवाल के पास आम के पेड़ के नीचे विश्राम करता। अक्सर बाहर दीवाल के पास कभी बच्चे खेलते तो कभी कोई राहगीर आराम करते और आम का वृक्ष भी अपनी डालियों से सबको सुकून और आराम देता जैसे उसके ही घर कोई मेहमान आया हो।

अच्छा लगता कि ये आम का पेड़ हम इंसानो से ज्यादा दयालु है। जेठ की भीषण गर्मी थी चिलचिलाती धूप में उस दिन जब घर पहुँची तो एक वृद्ध बेसुध सा आम के पेड़ के दीवाल से सटकर सोया था। कहीं शराबी तो नहीं....शक हुआ और मैंने पूछा बाबा आप कौन हो?आम की पत्तियां यूँ खड़खढाई की हर किसी पे तुम शक न करो। पर मैंने विनम्रता से स्कूटी किनारे लगा फिर पूछी बाबा आप कौन हो?वो धीरे से करवट ले उठ बैठे और "बोले कि मैं दूर का सफर कर आया हूँ, थक गया तो यहीं बैठ गया जाने कैसे झपकी लग गयी। "मैंने कहा कोई बात नही बाबा चलो अंदर बैठ जाओ पानी पी लीजिये और मुँह भी धो लीजिये और बताइए कहा जाना है मैं छोड़ देती हूँ स्कूटी की तरफ इशारा कर बोली तो वो बोले नही "बेटा बस कुछ नही चाहिए और पानी के लिए बॉटल का इशारा किये। "उनका बॉटल भर में अंदर चली गयी। करीब आधे घण्टे बाद कुछ काम से बाहर जाने के लिए अपनी स्कूटी निकाली जाने के लिए।

बाहर देखी तो वो बाबा जा चुके थे। मैं भी निकली हमारी कालोनी में कुछ दूर ही गयी थी कि वो बाबा पुनः दिखे 3 बजे सूरज अपने पूरे शबाब में था। और गर्म हवाएं नन्हे बच्चे की तरह मुँह में तमाचा मारती हुई लग रही थी। उस वृद्ध के लिए असहनीय हुआ कुछ कदम लड़खड़ाए और पुनः एक गुलमोहर की छाँव वाले बंगले के बाहर दीवाल के पास बैठ गए। इससे पहले की कुछ समझ आता उसी वक्त उस घर का मालिक निकला।

"ओए कौन है रे तु शराबी कहीं का चल जा यहाँ से, कहाँ कहाँ से चले आते है मुँह उठाकर न जाने कितने अपशब्दों का बाण चला दिये। उस वृद्ध बाबा ने विनम्रता से कहा बेटा गर्मी से व्याकुल हो बैठ गया था। इसी मुहल्ले में अपने रिश्तेदार के घर आया हुँ कोई चोर , शराबी नही हूँ। बस से उतर इतनी दूर पैदल चलते कदम जवाब देने लग गए। और इतना कह वो आगे बढ़ गए। सहानुभूति के दो शब्द कह मैं उनका और अपमान नही करना चाहती थी। पर उनका जवाब सुनकर भी उस घर के मालिक ने एक लब्ज नही कहा न अपने अपशब्दों के लिए माफी माँगी। वो बाबा अपने मंजिल की तरफ निकल पड़े और उसके सामने से अपनी चमचमाती कार से वो आदमी भी...पर इस घटना से मैं बहुत दुखी हो गयी कि किसी के साथ कोई इतना बुरा बर्ताव कैसे कर सकता है। लगभग साल भर बाद उस घर की मालकिन चल बसी। धीरे धीरे गृहकलह और उस घर के मालिक को उस घर से अपना स्वामित्व खोना पड़ा।

न चाहकर भी वो घटना याद आ गयी। वो बाबा तो धीरे धीरे अपनी मंजिल तक पँहुच ही गये होंगे। पर उस घर का मालिक आज बेघर हो गया था। आम के पेड़ से मेरी आत्मीयता बढ़ गयी थी। अब भी न जाने कितने पथिक आम की छाँव में विश्राम करते। अपनी डालियों से ठंडी हवा करता आम का वृक्ष सेवा कर पूण्य कमाता और उससे मेरी घर की बरकत बड़ रही थी। मैंने क्यारियों में अब मोंगरा, गेंदा, गुलाब भी लगाया। पर सबसे प्रिय मेरा आम का वृक्ष बेशक आम आज भी बच्चों और बन्दरो की वजह से नहीं मिलता पर स्नेह असीम मिलता है।


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