Shakuntla Agarwal

Abstract Others

4  

Shakuntla Agarwal

Abstract Others

"आखिर क्यों?"

"आखिर क्यों?"

14 mins
55


शाम रात से मिलने के लिये आतुर थी। पक्षी अपने घरों को लौट रहे थे। गायें भी अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिये आतुर थी, परन्तु शिवांगी अपनी बच्ची को गोद में लिये बदहवास दरवाजा पीट रही थी। वह यह भी भूल गई थी की घण्टी लगी है।

अरे! भई खोलों। सभी को क्या सांप सूंघ गया? कोई भीसुन क्यों नहीं रहा। इतने में ऊपर से शिवांगी के पापा की आवाज आती है।

अरे शिवांगी तुम, घण्टी क्यों नहीं बजा रही हो। दरवाजे की वजह से आवाज ऊपर तक नहीं पहुँच पाती, बाहर यातायात भी तो बहुत है, उसी में आवाज दब जाती है। बच्ची को गोद में लेते हुये तुम यूँ अकेले? दामाद जी कहाँ हैं?

शिवांगी - वो मैं बाद में बताऊंगी, पहले टैक्सी वाले का बिल चुका दो। मेरे पास छुट्टे नहीं हैं।

रमेश - तुम और टैक्सी में बेटा मेरा जी घबरा रहा है। कुछ हुआ है क्या?

शिवांगी - (चीखते हुये) अरे भई, टैक्सी का किराया तो चुका दो, जी वी बाद में घबरा लेना।

रमेश- अरे सुनती हो ऊपर से मेरा पर्स लेकर आओ, शिवांगी आई है।

सुनीता - बदहवासी में सीढ़ियों से नीचे आती है। शिवांगी, यूँ अचानक और अनमनी सी क्यों दिखाई दे रही है?

शिवांगी - बैठने के लिये भी नहीं कहोगे क्या? ये कहानियाँ बाद में पूछ लेना।

सुनीता - क्या हुआ? इतना तो बता दे ताकि थोड़ी तसल्ली आ जाये।

शिवांगी - मम्मी मैं और विनोद आज ही भोपाल से लौटे थे, मैंने कहा - तुम अपने घर, मैं अपने घर।

विनोद बोला - ऐसे कैसे होगा। तुम्हें मेरे साथ मेरे घर चलना होगा, वरना मम्मी पापा क्या सोचेंगे की कैसी बहु है, बेटे के साथ तो रहती है और हमारे से

कन्नी काटती है तो मैंने कह दिया - हाँ, तो मैं तुम्हारे साथ तो रह सकती हूं, परन्तु तुम्हारी मम्मी के साथ नहीं वो मुझे एक आंख भी नहीं सुहाती।

विनोद - शिवांगी तुम समझो, मैं अपने माँ - बाप की इकलौती सन्तान हूँ, अभी तक उन्होंने अपना फर्ज निभाया, अब मेरी बारी है।

शिवांगी - तुम निभाओ अपना फर्ज, मैं नहीं रह सकती तो नहीं रह सकती।

विनोद - सोच लो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। ऐसा ना हो कि हम दोनों के ही रास्ते अलग हो जायें।

शिवांगी - मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कहते हुये, टैक्सी रोकती है और उसमें बैठकर चल देती है।

इतने में शिवांगी अपने बीते हुये पलों की याद में खोती चली गई। शिवांगी सुशिक्षित उच्च कुल की कन्या है, जो सुन्दरता में मेनका, उर्वशी से किसी मायने में कम नहीं, लम्बे बाल, तीखा नाक-नक्शा, गोरा रंग, ऊंचा कद और अंगों को कुदरत ने जैसे एक सांचे में ढाल रखा हो, जो देखता उसे देखता ही रह जाता जब वह जवान होने लगी, लोगों की निगाहें उसकी सुन्दरता पर अटक कर रह जाती, हर कोई चाहता कि काश! वह उसके दिल की मल्लिका बन जाये। उन्हें अपनी दिल्ली का ही लड़का पसन्द आया। जो सुन्दरता में शिवांगी के समकुल था, और रुतबे में उनकी बराबरी का स्टेटस। दोनों तरफ से ही खूब शहनाईयां बजवाई गई। मोहरे लुटाई गई। दोनों ही परिवारों में अपने आपको ऊँचा दिखाने की होड़ लगी हुई थी। दोनों ही घरों को दुल्हन की तरह सजाया गया। घर में

दोनों तरफ ही पहली शादी थी तो दिखावा भी जरूरी था। घर में बहु आ रही थी, सो सास-ससुर तो फूले नहीं समा रहे थे। ऐसे लग रहा था बरसों के प्यासे पपीहे को पानी का सैलाब मिल गया हो। शिवांगी के स्वागत के लिये सास-ससुर दोनों ने ही पलक-पावड़े बिछा दिये। सास तो इतनी सुन्दर, बहु पाकर फूले ही नहीं समा रही थी, बार - बार शिवांगी की बलंईयां ले रही थी। सब रस्मों के बाद सास ने विनोद और शिवांगी को जोड़े से बिठाया और लगी नजर उतारने। ना जाने शादी में कितने लोग आये, किसकी कैसी नजर हो। मेरे बच्चों को बुरी बला से भगवाऩ हमेशा बचा कर रखे और सुनीता के कोर खुशी के आंसुओं से भीग गये। शुरू शुरू में शिवांगी भी बहुत खुश थी। परन्तु देर रात आना, बिना बताये जाना। सास-ससुर को अखरने लगा। कई बार शिवांगी को समझाया भी की शिवांगी जाने की मनाही नहीं, परन्तु पता तो चले कहाँ जा रही हो।

शिवांगी - इसमें बताने वाली क्य़ा बात है। मेरी अपनी जिन्दगी हैं, जैसे चाहे जीऊं, मुझे दखल अन्दाजी बिल्कुल पसन्द नहीं, मम्मी जी, आप अपनी हद में रहा करें।

कमला सास - ये बात नहीं, हम तुम्हें ही नहीं कह रहे हैं, हम तो नेहा और विनोद को भी यही हिदायतें देते हैं और वह भी बैगर पूछे कहीं नहीं जाते।

शिवांगी - मैं कोई छोटी बच्ची नहीं। वह मानते होंगे आपके कायदे-कानून। घर है कोई जेल तो नहीं की मैं अपनी मर्जी से कहीं जा भी ना सकूँ।

कमला सास - शिवांगी, देखो बात मत बढ़ाओ। तुम्हें मना नहीं किया, बस इतना कहा की बताकर जाया करो, नाहक चिन्ता हो जाती है।

शिवांगी - ओहो, मम्मी जी, कल को तो आप कहेंगी कि शू-शू पोटी भी बताकर जाया कर। बस ! अब मेरी बर्दाश्त के बाहर हो रहा है। कहकर पैर पटकती हुई घर से बाहर निकल गई। रात के 11 बज गये, परन्तु शिवांगी घर नहीं आई। सबको चिन्ता सताने लगी। शिवांगी को फोन किया - तुम कहां हो? कब तक आओगी? हमें चिन्ता हो रही है।

शिवांगी- करते रहो चिन्ता, मैं अब उस जेल में कभी नहीं आऊंगी, कहते हुये फोन पटक देती है और चिल्लाने लगती है जेल है जेल, मुझे नहीं चाहिए ऐसा जीवन। मैं तो विनोद की सुन्दरता पर मन्त्र-मुग्ध हो गई थी। मुझे क्या पता था कि इतना दकियानूसी है जो अपनी मम्मी के पल्लू से ही बंधना पसंद करता है। उसे बीबी की कोई चिन्ता नहीं, अब भी उसकी मम्मी ने ही फोन किया, खुद के मुंह पर तो ताले पड़े है। इतने में शिवांगी का फोन बजा, उधर से विनोद की आवाज थी - अरे, शिवांगी तुम घर नहीं आई? मैं लेने आ रहा हूं। गुस्सा थूक दो, घर गृहस्थी में छोटा-मोटा चलता रहता हैं।

शिवांगी- मुझे ऐसी गृहस्थी नहीं चाहिये, जिसमें रोका-टोकी हो। मैं आजाद परिन्दे की तरह रहना चाहती हूं। मैं वहीं रहना चाहती हूँ जहां कोई रोकने टोकने वाला ना हो बस, सुन लिया तुमने।

विनोद - मैं घर आ कर बात करता हूँ अभी तुम्हारा पारा चढ़ा हुआ है। विनोद शिवांगी के घर आता है, परन्तु शिवांगी पर विनोद की बातों का कोई असर नहीं होता वह जस की तस रहती है, मुझे वहाँ नहीं जाना जहां तुम्हारी माँ रहती है। मुझे उनके देखने का अदांज ही पसन्द नहीं।

विनोद - शिवांगी यार बच्चो सी बातें मत करो। मम्मी कहां जायेंग़ी? तुम ऐसी हठ करके क्यों बैठ गई हो जो पूरी ही नहीं हो सकती। यार तुम कुछ भी मांग लो।

लेकिन ये बिन सिर पैर की बातें अच्छी नहीं।

विनोद अपने सास ससुर को भी उसे समझाने के लिये कहता है। परन्तु कोई परिणाम नहीं निकलता।

विनोद - तुम्हारा दिमाग शांत हो तब मुझे फोन कर लेना। ठन्डे दिमाग से सोच लो। अगली सुबह शिवांगी उठती है, तो उस का सिर भारी होता है,

शिवांगी - मम्मी पता नहीं क्या हो रहा है, सिर भी भारी है, बेचैनी भी हो रही है।

मैं नींबू पानी बना देती हूँ शायद ठीक हो जाये।

शिवांगी नींबू पानी पीने लगती है, वैसे ही उसे उल्टी का मन करता है, वह बाश-बेशिन की तरफ भागती है।

शिवांगी - मम्मी मेरा बहुत दिल घबरा रहा है, ऐसे लग रहा है कलेजा निकलकर बाहर आ जायेगा।

मम्मी - (कमर सहलाते हुये) कोई बात नहीं, एसिडिटी बन गई होगी। बाहर का भी तो बहुत खाती है। मना करने के बावजूद भी नहीं मानती।

शिवांगी - मम्मी मुझे पलंग तक ले चलो। ऐसे लग रहा है जैसे शरीर में जान ही नहीं। मम्मी शिवांगी को पकड़कर पलंग तक ले जाती है तो, वह चक्कर खाकर पलंग पर गिर पड़ती है। 

अरे सुनते हो! देखो शिवांगी को क्या हो गया? जल्दी से गाड़ी निकालो, लगता है डाक्टर के पास जाना पड़ेगा। वो शिवांगी को लेकर डाक्टर के पास

जाते हैं। डाक्टर चैक करके कहती हैं - मुबारक हो, शिवांगी माँ बनने वाली है, आप नाना-नानी।

शिवांगी - क्या कह रही हो डाक्टर साहिब? अभी से बच्चा, ये मेरे करियर और फिगर के लिए अच्छा नहीं। डाक्टर ऐसा नहीं हो सकता कि मैं इस बच्चे को अबो्र्ट करवा दूं? ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी।

मम्मी - शिवांगी तुम ये क्या कर रही हो? तुम्हारा दिमाग तो ठीक हैं? बच्चे भगवान की देन होते हैं।

शिवांगी - होते होंगे, पर मुझे ये बच्चा अभी नहीं चाहिये, कह दिया जो कह दिया।

अगर विनोद के परिवार वालों को इसकी भनक़ भी लग गई तो वह हरगिज इसके लिए तैैयार नहीं होगें। 

तो मैं उनको भनक लगने से पहले ही इस समस्या को खत्म करना चाहती हूं। शिवांगी के पापा ये सब सुन रहे थे।

शिवांगी के पापा - शिवांगी, तुम कान खोल कर सुन लो, ये बच्चा तो अब इस दुनिया में आयेगा, ये कहते हुये विनोद को फोन मिला दिया। 

उधर से विनोद की आवाज आती है - पापा जी, धोक बोलिये।

बेटा हम डाक्टर के पास आये हुयें हैं, तुम्हारे लिय़े खुशखबरी है। तुम पापा बनने वाले हो। क्या कह रहे हो, पापा?

(विनोद खुश होते हुये) - मैं अभी शिवांगी से मिलने आता हूँ, मम्मी -पापा भी बहुत खुश होंगे, ये सुनकर की वो दादा-दादी बनने वाले हैं।

विनोद - मम्मी, आप दादी बनने वाली हैं और मैं शिवांगी से मिलने जा रहा हूं।

मम्मी - तुम दोनों ने हमें बहुत बड़ा तोहफा दिया है, शिवांगी को मेरी तरफ से दुलार करना। अपनी सास से कहना - नजर उतारे। जमाना बहुत

खराब है।

विनोद का तन -मन दोनों थिरकऩे लगे, उसे ऐसा लग रहा था जैसे - काश ! पंख होते तो वह उड़ कर शिवांगी के पास पहुंच जाता।

जैसे ही ससुराल पहुंचता है, उसके ससुर ही दरवाजा खोलते हैं।

विनोद - पापा जी के चरण छूते हुये - जी, शिवांग़ी कहाँ है?

पापा - ऊपर है बेटा।

विनोद - अच्छा, कहते हुये, गुनगुनाता हुआ, तुझे सुरज कहूं या चन्दा गाते-गाते कमरे में प्रवेश करता है।

सुनीता मम्मी - तुम दोऩों बाते करो मैं पानी लेकर आती हूँ, कहते हुये चली जाती है।

विनोद - शिवांगी का हाथ पकड़कर, तुम नहीं जानती मेरी जान इतने में शिवांगी विनोद से अपना हाथ छुड़ाते हुये, मुझे नहीं चाहिये तुम्हारा झूठा प्यार, ना ही ये बच्चा।

विनोद - शिवांगी, ये क्या कह रही हो? लोग बच्चों के लिये तरसते हैं।

शिवांगी - कह दिया एक बार, मैं अभी से अपने करियर और फिगर को दांव पर नहीं लगा सकती।

सुनीता इतने में पानी का गिलास लेकर प्रवेश करती है।

विनोद - मम्मी जी, सुना आपने ये क्या कर रही है? आप लोग ही कुछ समझाओ इसे।

सुनीता - बेटा क्या समझायें? समझने को तैयार ही नहीं है, बस एक ही रट लगाये हुये है, शिवांगी के पापा ने तो साफ मना कर दिया है।

उन्होंने साफ कह दिया बच्चा तो अब इस घर में आयेगा ही। वो इसी पक्ष में हैं।

शिवांगी रोने लगती है, आप लोग समझ क्यों नहीं रहे। 

विनोद - शिवांगी समझो यार, इतनी जिद्द अच्छी नहीं, घर कब चल रही हों? 

शिवांगी - आज ना कल, मैं घर नहीं आने वाली।

सुनीता - कोई बात नहीं बेटा, ये भी तो घर ही है। शुरू-शुरू में थोड़ी तबीयत भी खराब रहती है। यहाँ रहेंगी तो ज्यादा अच्छी देखभाल हो जायेगी।

विनोद - मम्मी जी, हम सब भी इसे अपनी पलकों पर बिठा कर रखेंगे। मम्मी भी आपकी ही तरह शिवांगी का पूरा ख्याल रखेगी। भेज दो ना प्लीज, शिवांगी को । मेरा भी घर में मन नहीं लगता।

परन्तु शिवांगी की मम्मी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगीं। विनोद मिन्नतें करके वापिस घर चला गया। जब भी मन करता, शिवांगी के घर उससे मिलने

चला आता। धीरे-धीरे उसे लगने लगा, उसे पहले जैसा मान सम्मान नहीं मिल रहा। वह भी धीरे-धीरे कटने लगा। वह भी दिन आ पहुंचा जब

शिवांगी ने कन्या रत्न को जन्म दिया। ऐसे लग रहा था जैसे कोई नन्ही परी जमीन पर उतर आई हो। सब बहुत खुश थे। विनोद और विनोद के मम्मी पापा सब हास्पिटल पहुंच गये थे। वो बहुत खुश थे, उन्हें तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई थी। उनको लग रहा था अब सब ठीक हो जायेगा। शिवांगी अब उनके साथ

उनके घर चल पड़ेगी, परन्तु नहीं, वो तो अपने मायके ही चली गई। विनोद ने खूब मिन्नतें की, परन्तु कुछ हासिल नहीं हुआ। विनोद की अब कुछ

खीचा - खीचा रहने लगा।

शिवांगी - विनोद मैं अलग रहना चाहती हूं।

विनोद - क्यों क्या हुआ? मम्मी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। जो तुम्हें ये फैसला लेना पड़े।

शिवांगी - मैं तुम्हारे घरवालों, यानि तुम्हारी मम्मी के साथ रहना नहीं चाहती और तुम छोड़ना, बस इसी वजह से मुझे ये फैसला लेना पद रहा है।

विनोद सिर से पैर तक पसीने में नहा गया, जैसे उस पर किसी ने घडों पानी डाल दिया हो। 

हिम्मत करके विनोद ने कहा - शिवांगी, थोडा ठण्डे दिमाग से काम लो, जिन्दगी पूरी यूँ नहीं चलती, तुम इतऩी छोटी बात को क्यों बढ़ा रही हों? वैसे तो बाहर ही रहता हूँ, भोपाल यहाँ कितना आता हूँ यार?

शिवांगी - मैं तुम्हारे साथ भोपाल चल सकती हूं, परन्तु वहाँ तुम्हारी मां के साथ नहीं रह सकती।

विनोद ने सोचा बेटी और शिवांगी को भोपाल ले जाता हूँ, हो सकता है मेरा प्यार शिवांगी के फैसलों पर भारी पड़े। क्या पता वह यह जिद्द छोड़ दे।

मम्मी - पापा आपकी क्या राय है, शिवांगी मेरे साथ भोपाल जाना चाह रही है, परन्तु यहां नही रहना चाहती। मुझे लगता है मेरा प्यार और अपनापन उसे हमारे करीब ले आयेगा।

कमला - हाँ बेटा जरूर, सुबह का भूला शाम को भी लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते - कहते हुय़े सुबकने लगती है। (सुबक़ते हुए) पता नहीं किसकी नजर लग गई जो शिवांगी इस घर में ही नहीं रहना चाहती। मैंने तो दोनों की नजर भी उतारी।

विनोद का प्यार शिवांगी को हमारे करीब जरुर ले आयेगा। विनोद, शिवांगी और अपनी बेटी को लेकर भोपाल आ जाता है। साल भर वहाँ बड़े मजे में निकलता है। सैर-सपाटे करना और खुश रहना, लगता ही नहीं यह वही शिवांगी हैं - अड़ियल। दोनों बड़े मजे में रहते है। विनोद कभी -कभी मम्मी-पापा को यहां के हाल चाल बताता रहता था।

मम्मी ने विनोद से कहा - तुम्हें लगता है शिवांगी हमारे करीब आ जायेगी?

विनोद - लगता तो है मम्मी और हमारी किस्मत।

मम्मी ने कहा - तुझे तो प्यार करती है, मुझ से ही नफरत करती है। मेरी इतनी सी बात मान क्यों नहीं लेता मुझे मरा हुआ समझ ले। बस तेरी सारी मुसीबत कम हो जायेगी। मेरी मान अपना घर बसा ले बेटा। हम तो आई खेती हैं आज मरे कल दूसरा दिन - कहते हुये सुबकने लगती है और कहती है कि बेटा

बर्बाद मत कर अपना बसा बसाया घर।

विनोद - मम्मी ऐसी बातें मत करो। आपने मुझे जन्म दिया हैं, क्या इसलिये पाल-पोस कर बड़ा किया है कि मैं ये दिन दिखलाऊँ? मैं अपनी तरफ से भरपूर कोशिश कर रहा हूँ और ऊपर वाले की मर्जी। अगर वह मेरे मम्मी-पापा के साथ नहीं रह सकती तो वह मेरी भी कुछ नहीं लगती। देखते हैं किस्मत को क्या मन्जूर है ऐसे ही 16-17 महीने निकल जाते हैं। प्यार पनपता रहता है। विनोद और शिवांगी बेटी तुरी को लेकर वापिस अपने घर आते हैं। जैसे ही हवाई अड्डे पर पहुंचते हैं, तो शिवांगी कैब बुक़ करवाती है।

विनोद - शिवांगी तुम ये कहां की टैक्सी बुक करवा रही हो?

शिवांगी - अपने घर की। 

तुम मेरे साथ घर नही चलोगी तो मम्मी-पापा क्या सोचेंगे की बहु-बेटे के साथ तो रहती है हमारे साथ नहीं।

शिवांगी - सोचते हैं तो सोचे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम मेरे साथ मेरे घर चल रहो हो क्या?

विनोद - क्या सिरफिरी बाते कर रही हो? मैं तुम्हारे साथ कैसे चल सकता हूँ?

शिवांगी टैक्सी में बैठ कर जाने लगती है। तुरी खिड़की में से हाथ निकाल कर पापा-पापा कहती हुई रोने लगती है। शिवांगी उसका हाथ अन्दर करती है, खिड़की बन्द करके चलती बनतीॅ है। विनोद बुत बना वहीं खड़ा रहता है, जैसे उसे किसी ने जड़ कर दिया हो। थोड़ा समय और निकलता है। विनोद शिवांगी की मन्नतें करता रहता है, परन्तु वह टस से मस नहीं हुई, आखिर विनोद भी कब तक नोहरे खाता? आखिर उसे भी लगने लगा की जब वह नही झुक रही तो मैं क्यों झुकुं? वह भी जब की मेरे मम्मी-पापा की कोई गलती नहीं, आखिरकार दोनों में धीरे-धीरे दूरियां बढ़ने लगी, फिर शुरू हुआ मीटिंगों का दौर। दोनों ही पक्ष अड़ गये। दोनों ही तरफ से आक्षेप लगने लगे। जितनी कीचड़ उछाली जा सकती थी उछाली गई। दोनों ने नोटिस दिलवाये और मामला कोर्ट पहुंच गया। 6 महीने का समय दिया गया। विनोद ने अपनी सास से मिन्नत की, परन्तु उल्टा वह कहने लगी तुम क्या समझते हो हमारे हमारे घर में खाने-नहाने के लिए नहीं है हम अपनी बेटी को रख सकते हैं। 6महीने कब 6 साल में बीत गये पता ही नहीं चला। वकीलों का घर भरता गया। दोनों परिवार लुटते गये और कब वह वकील के हाथ की कठपुतली बन गये पता ही नहीं चला। दोनों का तलाक हो गया। घर लुटाकर दोनों ही पक्ष झूठमूठ के नकली हंसी हंस रहे थे।

दोनों में दम्भ ने स्थान जो ले लिया था। कुछ साल निकले। कुछ तो घर की परिस्थितियां बदली, कुछ वह परिपक्व हुये, दोनों को ही लगने लगा बात ही क्या थी, वह एक-दूसरे से फिर बात करने लगे, परन्तु अब कोई विकल्प नहीं रह गया था। अब पछताते होत क्या ,जब चिड़िया चुग गई खेत। नासमझी ने दोनों घरों को बर्बाद कर दिया। आपको ज़िन्दगी में कुछ समझौते तो करने ही पड़ते हैं फिर ये नासमझी क्यों। आज ससुराल वालों का नज़रिया पहले जमाने से बदल गया है आज सासु-मां ने मां का रुप ले लिया है और बहु ने बेटी का। पहले से ही मन में भ्रम ना पाले, सास -बहु आपस में प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण ना तैयार करें, उन्हें आत्मीयता अपनानी होगी। मां-बेटी में भी तो आपस में कभी-कभी तनातनी हो जाती है। सास -बहु को भी उसे वैसे ही हल्के में लेना होगा। जब दोनों का ही अपना घर है तो ये सास-बहु की दीवार क्यों ? आखिर क्यों?



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract