युद्ध न कर
युद्ध न कर
युद्ध का अंत सुखद नहीं होता है,
पर फिर भी हम युद्ध करते ही हैं।
कभी अपने अंतः मन से ,
कभी अपने ही देश की सीमाओं पर
और कभी अपनों से
और युद्ध में हार इंसानियत की ही है।
डरा हुआ इंंसा ही युद्ध की आगाज़ का कारण है ,
अहम जब बलवान होता है तो टकराता है,
अपनी मर्यादा की दीवारें तोड़ता है,
लहू बहाता है
और सदा के लिए शान्त हो जाता है।
एक इतिहास बन जाता है।
पर सीखा आज तक कुछ नहीं है,
सदा बेरहम युद्ध के लिए तत्पर हैं।
आँखें महाभारत, हिरोशिमा नागासाकी,
विश्व -युद्ध एक-दो के अंंत को देखना भूल जाती हैं,
वे तो विध्वंस का दृश्य देखने को उतारू हैं
बच्चों को रोते-बिलखते,
माताओं को विलाप करते,
इस भू- मंडल को श्मशान बनते देखना चाहती हैं।
ये सारा खेल तो मन में बैठा रावण करवाता है,
जिसका राम आज तक विनाश न कर पाये हैं,
धरा पर सुख-शांति स्थापित न कर पाये हैं ।
मति-भ्रष्ट लोग हर चीज़ युद्ध से जितना चाहते हैं,
चाहे हृदय हो या ज़मीन का टुकड़ा,
पर यह नामुमकिन है ।
सिर्फ अपने कर्मों से हर दिल जीता जा सकता है,
देश तो क्या! विश्व जीता जा सकता है,
एक बार उठकर तो देख,
किसी के मुँह में निवाला डालकर तो देख,
बेसाहरों का सहारा बनकर तो देख,
जननी का हाथ अपने सर पर पायेगा।
युद्ध करना है तो भूख से कर,
बीमारियों से कर,
आकस्मिक विपदाओं से कर,
अमनुष्यता से कर,
प्रदूषण से कर,
विनाश से कर,
अपने अहम से कर
पर इस सुन्दर सृष्टि से न कर,
युद्ध न कर, युद्ध न कर।