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व्यथा - सच की

व्यथा - सच की

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हाँ मैं सच हूँ मैं बचा हुआ हूँ बस कुछ एक विचारों में,

ना आऊं चलचित्रों में न पाता अखबारों में,

मैं वो हूँ जिसको बचपन से सीखे तुम जीतेगा ही,

करे पस्त मुझे जीत किसी की हारा किसी की हारों में,

हाँ मैं सच हूँ मैं बचा हुआ हूँ बस कुछ एक विचारों में।


कभी जुबान में दबा रहा न पहुंचा कभी मैं कानो तक,

कभी छुपाया मालिक ने कभी खत्म हुआ दरवानों तक,

कभी बनाया पेशगीरों ने मुझको कमजोर यहां,

कभी लगाए बोली मेरी चिल्लर का एक चोर यहां,

कभी ब्याज पर बांटा मुझको मोटे साहूकारों ने।

हाँ मैं सच हूँ मैं बचा हुआ हूँ बस कुछ एक विचारों में।.


कभी किया लाचार मुझे नेता की नेतागीरी ने,

कभी डर गया मैं जब दे दी धमकी किसी अमीरी ने,

कभी किसी के प्रेम में मै खुद से ही धोकेबाज़ हुआ,

पहुंचा न अंजाम तलक यूँ कई बार आगाज़ हुआ,

कभी बिक गया में तो एंवई खड़ा खड़ा बाज़ारों में।

हाँ मैं सच हूँ मैं बचा हुआ हूँ बस कुछ एक विचारों में।


कभी कभी तो कोशिश की मैने सबसे लड़ने की भी,

चिल्ला चिल्ला करके खुदको दुनिया मे पढ़ने की भी,

कभी निडर हो निकल दिया इकलौते में मैदान में,

कभी सिमट कर बैठ गया में इस नन्ही सी जान में,

कभी गाला काटा मेरा इन धारदार हथियारों ने,

हाँ मैं सच हूँ मैं बचा हुआ हूँ बस कुछ एक विचारों में।


कभी लड़ा में जब मेरे कुछ अपने थे तकलीफ में,

समझौता कर बैठ था मैं दबकर उनकी चीख में,

कभी उठाया गर मुझको यूँ किसी सामाजिक मुद्दे ने,

उठने से पहले दफन किया था इस समाज बेहुद्दे ने,

कभी पीठ पे छूरा घोंपा घर के ही गद्दारों ने,

हाँ मैं सच हूँ मैं बचा हुआ हूँ बस कुछ एक विचारों में।


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