वो
वो
वो निष्प्रयोजयता के सम्मोहन का
प्रयोजन ढूंढ रहा था
और मिला तो जैसे
वर्तमान।
अनगिन वजहें व्यक्त हो रही हैं
निष्प्रयोजता के अस्तित्व की,
चलती हुई बौद्धिक बहसों में
राजनीतिक संस्थाओं के अपने
वजूद बचाये रखने की कोशिशों में
लोकप्रियता के प्रबंध में,
और हर आदमी अपने को
दूसरे से जिम्मेदार सिद्ध करने में
लगा हुआ है
कोई ये नहीं कहता कि
ये जो निष्प्रयोज्यता है
हमारा निकम्मापन है
हमारा निहित स्वार्थ है
और हम गलत दिशा में चलते जा रहे हैं।
अगर हम अपने को जिम्मेदार
महसूस ही नहीं करेंगे
तो जिम्मेदारी कैसे निभा पायेंगे
जाहिर है निष्प्रयोजता बनी रहेगी
और हम पूरी ताकत से
इसे बचाये रखेंगे।
वो तो यही कह सकता है कि
खुद को बदलो
जैसे वो खुद को बदल रहा है।