यूँ ही गुनगुनाते रहो
यूँ ही गुनगुनाते रहो
यूँ ही गुनगुनाते रहो
अपना ये कर्णप्रिय गीत
इसलिए की
इसमें जीवन की अनुगूंज है
उम्मीद की सरगोशी है
और गहन अंधेरे में
प्रकाश की संभावना है।
सुना था शब्द ब्रह्म होते हैं
और तुमने तो प्रकृति को ही
गीत बना डाला है
जिसमें शामिल है
विष्णु भी, महेश भी
रचना भी, विध्वंस भी।
यूँ ही गुनगुनाते रहो
लगता है
भविष्य चला आता तुम्हारे पास
मिलने लगता है जीवन को अर्थ
संवरने लगती है प्रकृति
और इंसान महसूस करने लगता
अपना उत्तरदायित्व
यकीनन दुनिया खूबसूरत
लगने लगती है तुम्हारे गीत से
और बनने लगती है
दुनिया के अंदर ही एक और दुनिया।
