वो महक
वो महक
वो महक...,
...,जो हर सुगंध से बेमेल है
एक अपनापन सा है उसमें
जो मानो मेरे ही लिए है,
खिंच लेती है मुझे
वह अपने में गुरुत्वाकर्षण
बल की तरह
दिखती नहीं है पर फिर
भी जैसे के महसूस होती
है मुझे,जिसमें
डूबते सूर्य की भाँति
ढलने को जी चाहता है
जो नि:शब्द होकर भी सब
कहती है,जो
मन की वीणा को छेड
पुलकित करती है मेरे
रोम-रोम को
मुझमें जो बसी-रमी-घुली
सी जा चुकी है
अनगिनत महत्वाकाक्षाओं
व एहसासों के सागर
उमडाकर जो तृप्तता
माँगती है,मुझमें
प्राण-वायु सी भर कर
मुझे बार-बार जीवंत
सा कर देती है,जो...,
...,वो महक तुम्हारे
बदन की है।

