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Rashmi Singhal

Others

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ऊँची-इमारतें

ऊँची-इमारतें

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इक्कीसवें माले की बालकनी

मैं खड़ी हूँ,माले के

अंक से लगभग दुगनी हो 

चुकी है,मेरी उम्र

सामने ऊँची-ऊँची इमारतों

के सिवा निहारने को ओर

कुछ भी नहीं है,बल्कि ये

इमारतें खुद भी हरदम

एक-दूसरे को ही निहारती 

रहती हैं,इन इमारतों ने

सूरज कि रोशनी को भी

अँधेरों में बदल डाला है

व ताजी हवा का गला

घोंट दिया है

कभी-कभी समझ नहीं 

पाती हूँ कि वक्त की 

रफतार तेज है या बदलावों 

कि ?

जमीन की गोद में सब कुछ

था,अब गगनचुंबी इमारतों

से भी कुछ नजर नहीं आता,

ज़िन्दगी जब से आसमान

क्या छूने लगी,तब से वह

जमीन से जैसे अपनापन

ही भुल बैठी है,

मिट्टी की खुशबू जो खेत-

खलिहानों से,बच्चों

के कपड़ो से,घर के चूल्हे

से,आदमियों के पसीने से

व गोधुली में पशुओं के पाँव

से आती थी,उसे महसूस

किए हुए मानो अरसा बीत

गया हो

पहले जीवन चलता हुआ

प्रतीत होता था,अब

भाग रहा है,

घर के मसाले,अचार,पापड़

मिठाई के स्वाद जाने कहाँ

भटक गए हैं,

रिश्ते-नाते,मित्रों व पडोसियों  

का अपनापन इन इमारतों के

नीचे ही दफन हो चुका 

है शायद !

कभी-कभी मन बहुत मायूस

हो जाता है और बस एक ही

बात लबों पर आती है कि

काश ! या तो पहले सा वक्त

लौट आए या मैं उस वक्त मैं 

फिर से लौट जाँऊ,पर

जानती हूँ कि दोनों ही बातें

असम्भव हैं ।


   


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