"कुम्हार की चाक पर"
"कुम्हार की चाक पर"
चला के चाक कुम्हार ने
रंग-रूप दिया माटी को,
उसने ढ़ाला वो ही जाने
अपनी इस परिपाटी को,
रौंधे,गूँथे,मथे,पकाए
बर्तन का वह दे आकार,
बस एक माटी के बल पर
ढ़ेरों ही रूप करे साकार,
गमला,घड़ा,गुल्लक,दीए
खिलौने अादी वो रच ड़ाले,
पका के उनको आँवे पर
सुन्दर रूप में वो ढ़ाले,
न जात-पात का भेद करे
न ही उनको दे कोई धर्म,
ढ़ाले उनको अपने अनुरूप
सबको देता उनका कर्म,
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मानो के फर्क नहीं जरा
भी,ईश्वर और कुम्हार में,
मढ़ कर अपनी चाक पर
उसने,भेजा हमें संसार में,
तन भी है माटी का पुतला
माटी में ही मिल जाएगा,
अपने सर पर घड़ा पाप
का,कैसे उठा तू पाएगा?
पाप-पुण्य के आँवे पर
जब ईश्वर तुझे पकाएगा,
सत्कर्मों का घड़ा उस वक्त
काम तेरे बस आएगा,
रचाया खेल ईश्वर ने अपना
बना के तेरी काठी को
उसकी माया वो ही जाने
अपनी इस परिपाटी को।