वो हर शय जो तेरी भा गयी
वो हर शय जो तेरी भा गयी
वो हर शय जो तेरी भा गयी जो तू राह में आ गयी
मेरा पागलपन तुझे तेरा मुझे और तेरी हँसी भी भा गयी
निकलना था दूर मुझे यहां से, साथ मेरे तू भी आ गयी
न जब परवाह किसी की, न रुकने की चाहत, बस वहीं
इस क़िस्से की शुरुआत हुई, हर हर्फ़ सफे पर लिखा गयी
भाग के इस दुनिया से हम रुके जहां दुनिया नई आ गयी
वहां मजनूओं का मेला था फिर कई लैलाऐं भी आ गई
निकले जिस रोज़ थे दिन याद नहीं तारीख़ याद आ गयी
तारीख़ थी इश्क़ की, शो आशिक़ों का, तौर आशिक़ी का
देख नए मजनूओं का, तेरे चेहरे पे हँसी आ गयी
फिर बात कुछ मेरी हुई कुछ बात तेरी दोस्त की आ गयी
उल्फ़त की समझ तो नहीं पर झुकती नज़र तेरी भा गयी
तार्रुफ़ तक तो ठीक सही ताल्लुक का न सोचा था बात
ऐसी क्या हुई अब हमारी बातों में भी गहराई आ गयी
गले लगाया तूने जब मौज़-ए-खूं मेरे बदन पे छा गयी
ऐसे तो न निकले थे, तेरे लिए इन आंखों में नमी आ गयी
फिर हुई कुछ ऐसी बात, थोड़ा सा रश्क़ तेरा, कुछ
नासमझी मेरी भी और बंदिश बातों पर भी आ गयी
न नींद मुझे,न सुकून तुझे, चेहरे पे मायूसी सी छा गयी
आँसू जब तेरे निकले थे घोल उसे जज़्बातों में,
गिरा अना की दीवार रेल दिल की फिर पटरी पर आ गयी
कुछ है नहीं पर संग क्यों, ये सवाल जब कुछ ने पूछा था
हमे अब जो पता नहीं बस चूप्पी सी चेहरे पर आ गयी
लम्हे जो हम जी रहे, अफ़साने का आगाज़ अभी,
डर बस इतना कि बात गर कभी कही अंजाम पे आ गयी