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Saket Shubham

Drama Inspirational

5.0  

Saket Shubham

Drama Inspirational

राम जब मिल जाएंगे

राम जब मिल जाएंगे

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एक सीता की कहानी है

जो अभी सुनानी है

सीता तभी कुँवारी थी

समझदार थी और प्यारी थी

जो निकली थी घर-बाड़ छोड़

शिवधनुष को खुद ही तोड़


और कहती

अपने राम को ढूँढने जाऊँगी

जिस राम में संसार है

ये संसार ही तो राम हैं

जानूँगी इस संसार को

इस नाम को

अपने राम को

तब राम अगर जब आएंगे

और मुझे ले जाएंगे

साथ तब मैं भी जाऊँगी

और राम में मिल जाऊँगी


तो निकली थी वो अब धूम-धाम

हर नुक्कड़ चौक-चौराहे घूम-घाम

जहाँ जहाँ वो जाती थी

यही अलख जगाती थी

की राम जब मिल जाएंगे

अगर मुझे ले जाएँगे

जान लुंगी राम को जब

साथ तब ही जाऊँगी अब

हाँ एक बात और

जो उनको भी बतानी थी

और सभी को समझानी थी

की चाहे हो किसी की इच्छा

न होगी कोई अग्निपरीक्षा


भटक-लटक कूद फाँद सटक

पहुँची वो एक नगरी में

स्वर्ण की नगरी में

रोका-टोका द्वारपाल ने

और उनके सवाल ने

की यहाँ से कहाँ तुम अब जाओगी?

ये नगरी है लंकाधीश की

पहले उद्देश्य तुम बतलाओगी


सीता बोली हट, ओ मूर्ख सटक

लगता बुद्धि तेरी गयी है भटक

विशाल समुद्र न रोक पाया तब

तू मूर्ख होगा जो रोकेगा अब

माया था या वो जाल था

या प्रभावित द्वारपाल था

ये तो पता नहीं

पर जाने दिया अंदर नगर

सीता बोली देखती हूँ,

शायद राम मिल जाये इधर अगर


घूम रही थी अब वो लंका में

बेरोक-टोक,

कभी मंदोदरी चौराहा,

कभी रावण चौक !

पहुँची अब वो एक वाटिका में

कहते हैं अशोक वाटिका में


वाटिका जो लंका का सम्मान था

रावण का अभिमान था

मतलब समझो जानो लो

इसका एक पत्ता भी टूटा तो

वो रावण के अहं का अपमान था


वाटिका में

सुंदर विचित्र फूल खिले थे

जैसे बहुत से बिछड़े प्रेमी यहीं मिले थे

सीता पहले बैठ गयी

फिर कुछ फल तोड़ा

फिर खा के लेट गयी


सेना लेकर आया पंडित

जब पता उसे ये बात चली

पेड़-पौधे पंछी-प्रेमी

सबमें मची थी खलबली

देखा जब उसने नारी को

गुस्सा थोड़ा कम गया

बातें करके पंडित

थोड़ा वहीं जम गया


संसार ढूँढने आयीं हूँ

ऐसा सीता ने बोला था

संस्कार तुम्हारे यहीं हैं क्या पंडित

क्या तुम मुझे भगाओगे

क्या ऐसे ही तुम अतिथि धर्म निभाओगे

थोड़ा विश्राम करूँगी

फिर चली जाऊँगी

चिंता न करो तुम,

यहाँ का एक तिनका न उठाऊंगी

या शायद मेरे राम यहीं ढूँढते आएंगे

मुझे फिर यहीं से ले जाएंगे

लंकाधीश ने सोचा नारी है

लड़की बेचारी है

थोड़ी सी है पागल

पर अतिथि हमारी है


पर सीता थी अनोखी अलबेली सी

पंडित इतनी जल्दी कहाँ समझ पाता

थी वो तो अबूझ पहेली सी

सीता सब मन की करती

कभी फूल कभी पत्ते तोड़ती

ये वाटिका को भी सीता थी भा गयी

रावण के पसंदीदा फल को भी सीता खा गई


पंडित हर दिन वाटिका आता

सीता की शरारतें देखकर जाता

अब एक दिन लंबी बात हुई<

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वृक्ष के नीचे बैठे दोनों

फिर हर दिन मुलाकात हुई


सीता ने मैत्री का हाथ बढ़ाया

रावण ने सोचा तो उसका भी मन गया

थोड़ा और सोचा तो तन गया

क्योंकि,

सीता से मैत्री उचित नही

पंडित ये बात जानता था

पर रावण बेचारा क्या करता

मोह ने उसको घेरा था

छोड़ा उसने राज पाठ

तोड़ा हर नियम समाज

अब बात हर वो उसकी मानता था

जबकि ये बात वो भी जानता था

की राम एक दिन आएंगे

और सीता को ले जाएंगे


रावण ने अहं को जो पीछे छोड़ा था

सीता ने उसके सम्मान तक का

तिनका तिनका तोड़ा था

लेकिन ये बात थी तो मैत्री की

जो निभानी थी,

रावण बेचारा बहक रहा था

उसे ये बात

खुद को भी समझानी थी


बेचारा हर दिन आया करता था

कभी प्रशंसा करता सीता की

कभी कवितायें लिखा वो करता था

रावण की भी बात अब

सीता को भाया करती थी

या पता नहीं शायद वो भी

हर दिन साथ बैठ कर

बस मैत्री निभाया करती थी


एक दिन रावण बढ़ा आगे थोड़ा था

चाह छूने उस सीता की

जिसने कभी शिवधनुष को तोड़ा था

लक्ष्मण रेखा न थी यहाँ

सीता ने ही कोई रेखा खींची थी

सब गायब हो गए जो थे वहाँ

जैसे ही पंडित आगे बढ़ा

न उसे कुछ भी दिखा

जो पहले से थी वहाँ

न पेड़ बचे, न पंछी थे

रावण समझ न पाया माया को

अब दिख नही रही वो सीता भी कहीं

जो ठीक आगे खड़ी थी वहीं कहीं

रावण पीछे हट गया

थोड़ा सा ठिठक गया

जैसे हटा पीछे वो

सामने देखा एकदम उसी सीता को

माया था या जाल था

या ये भी सीता का कमाल था

जो भी हो

रावण पीछे मुड़ा और चला गया


जब न आया वो पांच दिन

सीता ने संदेश भिजवाया की

कैसे रहूँगी मित्र तेरे बिन

न कटते हैं ये रात दिन


रावण तब वापस आया

थोड़ा सा घबराया

फिर अपनी समस्या बताया

सीता ने सुनी न एक बात

बोली तुम रहो यहीं दिन रात

रावण बोला है तो मेरी भी इच्छा

पर कहीं पर मन्दोदरी करती होगी,

बहुत दिनों मेरी भी प्रतीक्षा

सीता बोली छोड़ दो उसे

मैत्री धर्म निभाओ तुम

अब जो भी हो

मुझे बस छोड़ न जाओ तुम


रावण थोड़ा गम्भीर हुआ

बोला , हे! सीते

मैं इस समस्या से अधीर हुआ

छोड़ा मैंने राज-पाठ

तोड़ा सब नियम समाज

पर याद मुझे भी आता है

हर कोई मुझे बतलाता है

की,

राम एक दिन आएंगे

सीता तुम्हे ले जाएंगे


सीता भी थोड़ी गम्भीर हुई

फिर बोली, हे ! मित्र

सत्य तुम्हे बतलाती हूँ

की फिर से राम ढूँढने जाती हूँ

बस एक बात और

तुम्हे भी राम को ढूँढने जाना होगा

मैत्री धर्म निभाना होगा


हर कण में जब राम

सीता में भी राम

रावण में भी राम

तो बस राम को जानना होगा

थोड़ा पहचाना होगा


तो क्या बस यही

की राम जब मिल जाएंगे

तब सीता को ले जाएंगे !!













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