विरह वेदना
विरह वेदना
करुणा बहकर सूख रही,
मन में जलकर विरह वेदना!
झुुुर्रियों के नीचे कलकल करती,
अकसर बहती दोहरी वेदना!
प्रेम लबालब हृदय में,
आह! पाश में दबता रहता,
नयनों के कोरो से टकराकर,
वृहंत जलाशय रिसता रहता,
तरू पर कुंभलाता पुष्प अकेला,
करती क्या क्या जिरह वेदना!
करुणा बहकर सूख रही,
मन में जलकर विरह वेदना!
काया वृद्ध परछाई बूढ़ी,
जान प्राण निष्प्राण रही!
ललित सुनहरी छवि तुम्हारी,
स्मृति पटल पर अटल जमी!
घर के हर कोने से तुम आती,
वही महक मन में फैलाती,
चलो! अब जो आना तो,
मुझे भी साथ लेकर जाना!
क्योंकि! लगता नहीं यह जीवन है,
ऐसे अकेले जीते जाना!
उग्र हो रही यही आकांक्षा,
कर लो मृत्यु से सुलह वेदना!
करुणा बहकर सूख रही,
मन में जलकर विरह वेदना!
