विरह की आग
विरह की आग
क्या यह खेल रचाया तूने मेरे मालिक,
पहले मुझे बनाया, फिर अपने से अलग
करके मिलने को तरसाया…..!
कहता है, मेरी भक्ति कर -मैं मिल जाऊँगा,
मगर दुनिया से नेह लगाया तो मैं ना आऊँगा,
फिर कहता, जिम्मेदारीपूर्ण तू दुनिया में निभा,
मगर दुनिया जूठी है, तू सिर्फ़ मेरे संग नेह लगा…..!
अब उलझन में मैं हूँ फँसा……
जितना था मुझे आता, उतना मैं चल पाया हूँ,
तेरी राह में चलना कहाँ है आसां,
फिर कहता कोशिश कर तेरे इंतज़ार में हूँ मैं खड़ा….!
नेह लगाया तुझ संग मेरे रबा…….
रोता हूँ, तड़पता हूँ, कुछ कदम चलता हूँ थक जाता हूँ,
तू है कहता- एक कदम चल मैं सौ चलूँगा,
हिम्मत कर चलने की, तेरी राह तक के हूँ मैं खड़ा….!
तुझे, दो पल ही देखने- मैं इधर- उदर भटकता हूँ…….!
होता जब सामने तू, आँख मिलने को तड़पता हूँ,
);">फिर एक नज़र डाल कर छुप जाता है फिर कहता है,
आजा तेरे लिए ही हूँ मैं खड़ा……!
नेह लगा कर तुझसे…….
आशिक़ बनना चाहा, मिलन की आस में तेरे, सब कुछ छोड़ना चाहा,
क्या कमी रह गयी जब पूछता हूँ,
कहता - तूने है मुहँ मोड़ा, मैं तो जहां था वहीं हूँ मैं खड़ा……!
कहता है अगर तू …….
कि मैं नादान हूँ,
अनजान हूँ, कहता मुझे प्यार करना नहीं आता,
फिर कहता मैं जब चाहूँ दूँगा तब ही, क्यों दोगली बातों में उलझाया है,
अगर देना है तूने ही, फिर काहे कहता आजा तू इंतज़ार में हूँ मैं खड़ा?
हरगोविंद है कश्मकश में……
ना रहा दुनिया का, ना ही दीन का,
है तू दाता, मंगता मैं तेरी राह में खड़ा,
बस में अब ना मेरे कुछ, चरणों में मैं तेरे हूँ पड़ा,
उठना भी नहीं है आता, अब तो उठा ले, अपने सीने से लगा दे, और अपने में मिला दे…
अब कहने की बारी है मेरी- आजा मेरे रबा, जन्मों से इंतज़ार में मैं हूँ खड़ा…..!