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अनजान रसिक

Drama Tragedy Classics

4  

अनजान रसिक

Drama Tragedy Classics

विडंबना या अनहोनी

विडंबना या अनहोनी

2 mins
400


आपा-धापी की इस ज़िन्दगी में

ना जानें कब अपना खोया आपा,

होश भी अब अपना खोने लगे,

थप्पड़ और थपेड़े खाते-खाते ज़िन्दगी के,

ना जानें कितने कश लगा लिए।


दुविधा और उलझन ने लगाया

ऐसा जिगर में जाम कि बाहर निकलने के लिए

ना जानें कितने जाम लगे,

ज़िन्दगी की गाड़ी को सुचारू रूप से

दौड़ाने की कश्मकश में अनगिनत

अपने पीछे ही छूट गए।


सुनते थे जो गीत मधुर वो कर्ण

अब भीड़ और वाहनों का शोर - शराबा,

हल्ला- गुल्ला सुनते-सुनते थक गए,

पक गए,

जीवन की पटरी पर दौड़ते - दौड़ते

हम खुद गुमशुदा हों गए।


ये कैसा अँधियारा छाया है आँखों के सामने,

जला लो कितनी भी बत्तीयाँ पर ये तिमिर छँटता नहीं,

जो रास आते थे शुद्ध व मनमोहक वातावरण के नज़ारे,

वो अब नज़र आते नहीं।


पहले ऐसी बेचैनी ना थी,

ना था दिल व्याकुल इतना तब,

रिक्शा और बस के धक्के खाकर भी

प्रसन्नचित्त रहते थे सब।

धुएं का जो उबार दिखता है अब,

पहले ना उसका नामोनिशान था,


गैस चैम्बर तो बस कारखानों में ही

देखने को मिलता था।

हरियाली दिखती थी कभी खेतोँ में चहुँ ओर,

नारंगी - सतरंगी पुष्पों से मनोहर -मनोहर,

सजीली- सजीली,

रंग-बिरंगी,


आज दिखती हैँ वहाँ बस ईमारतें ही ईमारतें,

ऊँची -ऊँची,

बहु- मंज़ली।

औद्योगिक और वैज्ञानिक दृष्टि से विकास तो हमने भरपूर किया,

काया पलट कर दी दुनिया की,


पर पलट के जो देखा पीछे एक बार,

विनाश और सर्वनाश की झलकियों से भर गयी नज़र और दृष्टि।

अवलोकन करने लायक़ अब शेष रह ही क्या गया,

कामयाबी का अनुसरण करते-करते सभी का काम तमाम इस कदर हो गया।


धुंधली होती जा रही हर सीमा,

धुंधला आसमान हों गया,

विडंबना कहें या कहें इसे अनहोनी,

आधुनिकरण ने सृष्टि का ऐसा बेड़ा गर्ग कर दिया।


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