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Kanchan Prabha

Tragedy

4  

Kanchan Prabha

Tragedy

उस क्षण कभी कभी

उस क्षण कभी कभी

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परिताप में अब कभी कभी

किसी सुनसान से पथ पर 

नियति नजर आती है

उस चेतना में 

भूल जाती हूँ खुद को

उस भीड़ में 

जो मेरा निर्जर था

मन को झकझोर देता है

अंदर तक 

फिर भी मैं खामोश रह जाती हूँ 

अभिलाषित मन 

कारूण्य सा वहीं भटक कर 

विलीन हो जाता है 

गाम्भीर्य के उस

पूर-परिवर्तन को

कभी पाश में जकड़ते

कभी छिन्न मूल होते देखती हूँ 

तो अन्तर नहीं कर पाती मैं

प्रेमशिक्त एवं प्रेमरिक्त में 



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