उफ्फ ये घड़ी
उफ्फ ये घड़ी
ये घड़ी भी क्या अजब चीज़ है
जिसे वक़्त बताने को सजाया था कलाई पर,
वक़्त ही छीन कर ले गयी वो मुझसे.
अब ना सोने को वक़्त मिलता हैँ,
ना जागते हुए सुकून का एहसास होता है,
हर लम्हा बस एक रेस सी लगी रहती है,
हर वक़्त किसी ना किसी से आगे निकलने का
जुनून सर पर सवार होता है.
सीखने चला था जीने का सलीका,
अब तो जीने का लक्ष्य ही शून्य हो गया है,
आपाधापी और भाग दौड़ में पता ही नहीँ चलता
कि कब दिसंबर से जून हो गया है.
सोचा था वक़्त को मुट्ठी में जकड़ लूँगा,
रेत की तरह यूँ फिसलने ना दूंगा,
पर यें ना सोचा था कभी कि खुद ही वक़्त के पिंजरे में
खुद कैद हो कर उसके साथ बेहिसाब बहता चला जाऊँगा.
वक़्त का पीछा करने की होड़ में वक़्त ही मेरे पीछे पड़ गया,
कैसा दौर आ गया है ये,
आँखों से नींद और ख्वाब चीन गए सपने देखने का वक़्त ही ना रहा.
सोचा था वक़्त निकाल के सिनेमा ले के जाऊँगा परिवार को,
पर वक़्त के चक्रव्यूह में ऐसा फँसा कि ये करने का वक़्त ही ना मिला कभी,
अपनी छोटी से गुड़िया के लिए बड़ा सा फ्रॉक खरीद के लाया था कभी,
पता ही ना चला कि कब फ्रॉक छोटा और गुड़िया बड़ी हो गयी.
वक़्त की दलदल में धंसा ऐसा कि पता ही ना चला
कि कब दिसंबर की सुहानी शाम से जून की गर्म दोपहर आ गयी,
कब पैर लड़खड़ाने लगे मेरे और दातों जैसी सफ़ेदी बालों पर झलकने लगी.
गाने सुनने की ख्वाहिश में पूरे मनोयोग से एक टेप खरीदा था मैंने कभी,
पता ही ना चला कि कब उस टेप में जंग लग गयी और
मन की इच्छा मन में ही दफ़न हो कर रह गयी.
टीवी पर रविवार को 8 बजे चित्रहार आता था कभी,
सोचा था सबके साथ बैठ कर उसका लुत्फ़ उठाऊंगा कभी,
पर ये कभी आज कभी कल करते करते,
वो वक़्त ही ना आया कभी और देखते-देखते
चित्रहार की जगह अन्य कार्यक्रम ने ले ली।
उफ्फ ये घड़ी बड़ी अजीब चीज़ है,
जिस वक़्त के पीछे पड़ा था मैं पहले,
अब ये उस वक़्त को मेरे पीछे लगा के चली गयी है।
