तुम भाव के भूखे हो..!
तुम भाव के भूखे हो..!
सुना है...
तुम भाव के भूखे हो
पर, मेरे पास न भाव है ना प्रभाव
बस, अभाव ही अभाव...,
तुम आ जाओ तो मैं भी
भाव- प्रभाव युक्त हो जाऊँ...!
हर बार मैं ही क्यों पुकारूँ...?
कभी तुम भी तो...!
हाँ, हरबार सुदामा ही क्यों...?
कभी तुम क्यों नहीं...?
सुना है...
सौगंध ली थी शस्त्र न उठाने की
तुमने कुरुक्षेत्र में...,
क्या हुआ...?
आख़िरकार टूट गयी ना
सौगंध तुम्हारे शस्त्र न उठाने की...!
तो फ़िर...!
एक बार,
बस एक बार आ जाओ ना...!
मेरे लिए तो
सर्वस्व तुम ही हो
मेरे सखा भी और
और...!
ज्ञात है ना तुम्हें...!
मैंने तुमको एक नाम दिया है ,
बस...,
शब- ओ- शाम उसी की इबादत करती हूँ...।
जीवन के अंतिम क्षण में
उसी तरह मेरे समक्ष आना
पितामह को दिखाया था
जिस तरह अपना विराट स्वरूप...,
सबकी नजरों से ओझल
बस मैं ही देख सकूँ तुमको
मेरी अंतिम साँस
अंततः तुममे ही...!
बोलो...,
तब तो आओगे ना...!