ठहराव
ठहराव
रुक गया सब थम गया मौसम खुशियों का बदल गया
दौड़ते पैरों में ये आकर जंजीर ठहराव की डाल गया।
ये तो न सोचा था कभी ज़िंदगी इतनी कठोर होगी
साँसों की जुम्बिश पर अटकी हवाओं की मोहताज होगी।
आबोहवा में फैली हवा इतना भाव खा रही बिक रही
बोतलों में क्यूँ इंसान की फिरकी ले रही।
बोल न ज़िंदगी इंम्तेहान तू क्यूँ ले रही कौनसी संपत्ति की तू
उत्तराधिकारी कर्ज़ चुकाने क्या साँस ही मिली।
आवास के वासी हम मरघट के आदी नहीं क्यूँ
आधे रस्ते ही गिरह खोलकर उम्र की लड़ी तू तोड़ रही।
ए वक्त तू लौट जा वापस ये अपने दामन में बांधकर
लाया तू दर्द की कंटीली कौनसी ख़लिश।
ज़ोर नहीं कोई छोर नहीं बेबस जन-जन मारा फिरता
आस कहीं कोई और नहीं कहाँ जाकर फ़रियाद करें
हम ईश की चौखट बंद पड़ी।