तरक्की के दंश
तरक्की के दंश
रिश्तों की अहमियत खो दी,
तरक्की के नशे में ,
रिश्ते नाते भेंट चढ़ गए,
किसी गैर के सरपरस्ती में
कहते हो कुछ बचा ही नहीं
फिर जिदंगी में,
गोद छीन गई बच्चो की,
ऑफिस की कुर्सियां पाने मे,
फिर क्यों नम होती है आंखे,
वृद्धाश्रम को जाने मे,
कहते हो कुछ बचा ही नहीं
फिर जिदंगी में,
परवरिश के नाम पर बस,
जिम्मेदारियां निभाने में
प्यार तो बिक गया सारा ,
ऑफिस के बाजारों में,
कहते हो कुछ बचा ही नहीं
फिर जिदंगी में,
सही बात पर सुन कर,
भी चुप कैसे रह लेते हो
जमीर मार कर जिंदा हो,
इसे जिंदगी कहते हो।
कहते हो कुछ मज़ा ही नहीं
फिर जिंदगी में
चापलूसी करके तुम,
ओहदे तो बढ़ा लोगे।
पर उन सिसकियों का क्या ,
जो खुद पे चढ़ा लोगे।
सोचोगे कि कुछ मजा ही नहीं
फिर जिदंगी म
गिरवी रख रखी हैं जिंदगी बैंक में,
गर्वित होते हो ईएमआई बताने में
खप जाति हैं सारी जिंदगी
ईएमआई के जुगाड़ में,
और खप जाते हो तुम
इस तरक्की को समझाने में
कहते हो कुछ बचा ही नहीं
फिर जिंदगी में
इंसानियत मर गई
पैसा बनाने में ,
एक होड़ सी मची हैं
एक दूसरे को गिरने में,
इंसान से बड़ा कोई दुश्मन
नहीं इंसान का जमाने में
कहते हो कुछ बचा नही
फिर जिदंगी में
बगल के घरों के हालत का
कोई इल्म नहीं, तुम में
समय बिताते हो सात समंदर पार
बधाई पँहुचाने में
फँस जाते जब तुम
किसी मुसीबत में
सच्चे हमदर्द ढूंढते फिरते हो
सारे जमाने में
लोग अब पहले जैसे रहें नही
ज्ञान बाँटते हो हर अफसाने में
कहते हो कुछ बचा ही नहीं
फिर जिंदगी में
मन बैचैन, तन बीमार आधुनिकता से,
ये उपहार लिए फिरता है जमाने में
बढ़ता ही चला जा रहा,
जाने कौन बुद्ध इसे कब टोकेगा
मैं तो ठहर गया तू कब ठहरेगा
रुक के समझाने में।
