मृगतृष्णा।
मृगतृष्णा।
काश, मेरे हृदय तुल्य उनकी हृदय होती,
तो उनकी प्रेम में कोई ऐब ना होती।
निश्छल होती, यदि दर्पण-दीप होती,
मेरे हृदय को वह अति प्रिय होती।
मेरा प्रेम तंद्रालस सी लगी-
ज्ञात था उनके मुख कि मौन धारा,
बेचैन थी मुक्ति को जैसे कोई परिन्दा।
त्याग उन्हें, लगा जैसे मैं भटका पथिक था,
गुमसुम सा हो गया जैसे कोई ज़िंदा शव था।
पुरुष प्रथा में जिया-
आंसू, दर्द और सिसकियों को
आघात हृदय में दबायें रखा।
यह जीवन ख़यालों में गुजर रही,
जैसे कोई विरह वेदना तन-मन में फुट रही।
अब हर क्षण आहिस्ता से बीतने लगी,
अब ज्ञात होने लगा, था ये भ्रम मेरा।
जिया अब तक जो पल मृग तृष्णा में,
नेत्र खुली तो पाया, था मैं कोई रेगिस्तान में।