ये ज़िद्द नहीं है
ये ज़िद्द नहीं है
ये ज़िद नहीं है कि
जब भी बनूँगा, तेरा ही बनूँगा।
हर एक पल, हर एक लम्हा,
तुझपे जा मिटूगा।
महज़, एक उम्मीद थी दिलों में
तुझे पा लेने से मिल जाती शायद,
पूरी क़ायनात इन तक़दीरों में।
लफ्ज़ों में बस एक हलचल थी
दिलों में दफनाए हुए राज़,
अब होठों में चल रही थीं।
बयां भी करता तो कैसे...?
शायद तुम्हें अंदाजा भी नहीं था,
मेरी इस मुहब्बत का।
एक तरफ़ा समझ कर खुद को
बहुत ही मुश्किलों से संभाला था।
सच्चा प्यार में दो लोगों का मिलना
एक इत्तेफ़ाक़ हैं शायद,
हक़ीकत तो दूर होकर भी
एक हो जाते हैं शायद।
प्रेम तो स्वयं मुकम्मल होता है,
इसे किसी पहचान कि
कोई ज़रुरत ही नहीं होता हैं।
पंचम कुमार ✍