इब्तिदा-ए-इश्क़
इब्तिदा-ए-इश्क़
इब्तिदा-ए-इश्क़
और परखते ही
मौन साध लेता है प्रेम
जो बहता है
कभी न रुकने वाले
वेग में….!
पल भर में
अदृश्य हो जाते
असंख्य सच्चे सहज भाव
मर जाता है प्रेम बेमौत
छा जाती है
चीखती सी अजब ख़ामोशी
भ्रम बन जाते हैं सच
सोख लेते हैं रक्त
धमनियां सिकुड़ कर
रोक देती हैं सांसें
निर्जीव देह...गूंगी ज़ुबाँ
क्षीण होती श्रवण शक्ति
गंध मिट जाती है पुष्पों से
गम हो जाती है रोशनाई
बिफरता प्रेम घूमता है
अनजाने रास्तों में
खुद को खोजता हुआ
और पूछता है…!
मुझे देखा है कहीं..?