दहलीज...मायके की
दहलीज...मायके की
दहलीज…मायके की,जब लांघी थी।
ढुरके थे दो बूँद आँसुओं के,
और सिहरन सी न जाने क्यों जागी थी?
दहलीज…मायके की,जब लांघी थी।।
अनजान से सफर को कदम निकले थे,
रेत के घरौंदे को महल करने निकले थे,
अहसास था किसी अनहोनी सी आहट का,
अजनबियों के दिलों में चाहत पाने का,
कुछ यूं उलझन भरा था सफर मायके से आने का।।