तलाश सुकून की
तलाश सुकून की
भटक रहा है आज मानव
यहां सुकून की तलाश में
भौतिक जगत में गुम हो गया
जैसे खुद वो अपने ही नाश में
कभी दौड़ लगाए दौलत कमाता
कभी धन का बड़ा चट्टान लगाता
कभी अपने लिए दूसरों को सताता
कभी अहंकार से भरा रौब दिखाता
कभी दुनिया में खुद को श्रेष्ठ बताता
कभी सज्जनता का शंख बजाता
कभी प्रभु चरणों में शीश नवाता
कभी पाप को नियति कह छुपाता
कभी दूसरों का वो दिल दुखाता
कभी दीन को देख उपहास बनाता
कभी परिवार जनों की निन्दा करता
कभी अकेलेपन का स्वांग वो रचता
हर तरह के प्रपंच कर के भी
उसे सुकून नहीं मिल पाता है
जो करता अपमान दूसरों का
भला वो कब सुखी रह पाता है।