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तेरी शिद्दत

तेरी शिद्दत

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तेरी शिद्दत थी निगाहें झुका के चलने की।

फिर भी हमें कहाँ थी कोई शिकायत तेरे चलने की।


हम तो जी रहे थे इसी उम्मीद में कि तू आयेगी,

बिन तेरे कहाँ जरूरत थी साँँस को भी चलने की।


थे अकेले हम जहाँ में, हाथ तुमने थाम लिया,

मैं अगर हूँ अकेला तो क्यूँ शिकायत साथ चलने की।


दर्द दीवार बनकर खड़ा था ख़ुशियों की राह में,

देकर मौत को कहाँ जरूरत उठ कर चलने की।


तकदीर तो रुलाती है हर रोज़ तेरी ख़ातिर,

छोड़ कर हमें बात करती है मंज़िल तक चलने की।।


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