तेरी गलियों में जाना अच्छा नही
तेरी गलियों में जाना अच्छा नही
बड़े बेआबरू होकर
अब हम तेरी गलियों से निकलते हैं,
गर उधर जाते भी हैं तो
वहाँ से दबे-पाँव निकलते हैं।
अब न वहाँ तुम हो,
न इश्क़ है,
बस कुछ तुम्हारे एहसास हैं,
और एक हम हैं
जो बदहवास हैं।
कुछ यादें हैं उन गलियों की
जहाँ कभी तुम चला करती थी,
हमसे मिलने आया करती थी,
कुछ किस्से हैं उन गलियों में खड़े
इधर-उधर की दीवारों के पास,
पेड़ों के पास जिसने हमारी
प्यार भरी बातों को सुना था,
हमारे मासूम प्यार को देखा था।
अब उन गलियों में
तुम नहीं दिखती हो
पर वो दीवारें, वो पेड़,
हमारे प्यार का पहला एहसास
अभी भी वहाँ मुझे मौजूद दिखाई पड़ता है,
तुम्हारी सूरत तो नहीं दिखाई पड़ती,
पर तुम्हारा वज़ूद दिखाई पड़ता है !
समय बदला,
हम दोनों जुदा हो गए,
अब जब कभी उन गलियों से गुज़रता हूँ,
तो सोचता हूँ कि इश्क़ की
शुरुआत ही अच्छी थी,
पहला एहसास ही ठीक था,
कम-से-कम इतना तो होता था
कि जब भी तेरी गलियों से गुज़रते थे,
तेरा सूरत-ए-दीदार
कर के ही निकलते थे।
यूँ बेआबरू होकर
तेरी गलियों से निकलना
अब अच्छा नहीं लगता,
इसलिए मुझे तेरी गलियों में जाना
अब अच्छा नहीं लगता,
मुझे तेरी गलियों में जाना
अब अच्छा नहीं लगता...।
