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VIVEK ROUSHAN

Abstract

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VIVEK ROUSHAN

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घर के ना रह

घर के ना रह

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हम  घर में  रहें पर  घर के ना रहें

परिंदे भी कभी इक शज़र के ना रहें


मन  टूटता  रहा  पाँव  चलता  रहा

हम सफर में रहें पर सफर के ना रहें


इक दर से निकल दूसरे पे दस्तक दी

हम दर-दर भटके पर किसी दर के ना रहें


जहाँ भी गए हम खुद अकेले ही गए

कहीं भी रहें हम किसी से डर के ना रहें


इक नज़र में ठहरे थे हम कुछ देर के लिए

उस नज़र के बाद हम किसी नज़र के ना रहें।


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