तेरे लिए
तेरे लिए
मुसाफिर न बन जाऊं तेरे ख्वाबों में
सोच कर यह रात सारी जाग कर
काटती जा रही हूं मैं
तुझे तो पा लेने का सुकून है मुझे
फिर न जाने कैसा दर्द है जो सबसे
छुपाती जा रही हूं मैं
ऐसा नहीं है कि आदत नहीं है मुझे
मुस्कुराने की, तेरी पीर को राहों से
मिटाती जा रही हूं मैं
कसमों का दौर कब का खत्म हो चुका
अब तो तेरे साथ जिंदगी अपनी
संवारती जा रही हूं मैं।।