तेरा मुकाम कहाँ
तेरा मुकाम कहाँ
गल गया वजूद
मकान को घर बनाते
खुद से पराई जानो न खुद को
असीम कृतियों से भरे
अपने अस्तित्व को
तलाश कर
आँखों के घूँघट खोलों
कुछ लाड़ खुद को भी दो
कहने भर के अपनों के कानन से घिरी
ब्राह्म मुहूर्त से चले
तुम्हारे दिन रथ के घोड़े
रात के मध्यम पहर तक झुलसते
ज़िंदगी के संघर्ष से
क्यूँ विश्राम नहीं
तेरे साँसों के सफ़र में
कुरेदकर देखो सखी
अड़ाबीड़ जिम्मेदारीयों के जंगल में
दो मकान की मालकिन
ए जगत जननी
तुम्हारा खुद का मुकाम कहाँ है।
भावू।
