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ritesh deo

Abstract

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ritesh deo

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पुरुष दिवस

पुरुष दिवस

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मैं पुरुष हूँ

और मैं भी प्रताड़ित होता हूँ 

मैं भी घुटता हूँ पिसता हूँ

टूटता हूँ, बिखरता हूँ

भीतर ही भीतर

रो नहीं पाता, कह नहीं पाता

पत्थर हो चुका,

तरस जाता हूँ पिघलने को,

क्योंकि मैं पुरुष हूँ !


मैं भी सताया जाता हूँ

जला दिया जाता हूँ

उस “दहेज” की आग में

जो कभी मांगा ही नहीं था,

स्वाह कर दिया जाता है

मेरे उस मान सम्मान

को तिनका तिनका

कमाया था जिसे मैंने

मगर आह भी नहीं भर सकता

क्योंकि पुरुष हूँ !


मैं भी देता हूँ आहुति 

“विवाह” की अग्नि में

अपने रिश्तों की

हमेशा धकेल दिया जाता हूँ

रिश्तों का वज़न बांध कर

ज़िम्मेदारियों के उस कुँए में

जिसे भरा नहीं जा सकता

मेरे अंत तक भी

कभी दर्द अपना बता नहीं सकता

किसी भी तरह जता नहीं सकता

बहुत मजबूत होने का

ठप्पा लगाए जीता हूँ

क्योंकि मैं पुरुष हूँ !


हाँ मेरा भी होता है “बलात्कार”

कर दी जाती है 

इज़्ज़त तार तार

रिश्तों में,रोज़गार में

महज़ एक बेबुनियाद आरोप से

कर दिया जाता है तबाह

मेरे आत्मसम्मान को

बस उठते ही

एक औरत की उंगली

उठा दिये जाते हैं

मुझ पर कई हाथ

बिना वजह जाने,

बिना बात की तह नापे

बहा दिया जाता है

सलाखों के पीछे कई धाराओं में

क्योंकि मैं पुरुष हूँ !


सुना है जब मन भरता है 

तब वो आंखों से बहता है

“मर्द होकर रोता है”

“मर्द को दर्द कब होता है”

टूट जाता है मन से

आंखों का वो रिश्ता

ये जुमले

जब हर कोई कहता है

तो सुनो सही गलत को 

एक ही पलड़े में रखने वालों

हर स्त्री श्वेत वर्ण नहीं

और न ही

हर पुरुष स्याह “कालिख”

क्यों सिक्के के अंक छपे

पहलू से ही 

उसकी कीमत हो आंकते

मुझे सही गलत कहने से पहले

मेरे हालात नहीं जांचते?

जिस तरह हर बात का दोष

हमें हो दे देते


मैं क्यूँ पुरुष हूँ ?

हम खुद से कह कर

अब खुद को हैं कोसते !


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