स्वदेश परदेस
स्वदेश परदेस


अपनी ही माटी में होती है जिंदगी।
परदेस में तो बस रोती है जिंदगी।
परदेस की मिट्टी बिल्कुल वैसी है
वही दिखता है रंग रूप आकार
मुट्ठी भर जरा उठा कर देखा तो
अलग ही आए जेहन में विचार।
इधर प्यार खोजती रहती है जिंदगी
अपनी ही माटी में होती है जिंदगी।।
इस कर्मभूमि में बस दौड़ता हूं
चंद कागज के टुकड़ों के खातिर
इसमें मातृत्व का मरहम नहीं है
हां बस कर्म के लिए रहो हाजिर।
जिम्मेदारी का बोझ ढोती है जिंदगी।
अपनी ही माटी में होती है जिंदगी।।
फार्म की खेतीबाड़ी के चलन में
मिट्टी के सपर्श की अनुभूति नहीं
मशीनें कहां पसीना बहाती इधर
हाथ की मेहनत का स्वाद नहीं।
मशीनों से न शिकवा करती है जिंदगी।
अपनी ही माटी में होती है जिंदगी।।
इस मिट्टी की संस्कृति, भाषा का
मेरी माटी से कभी कोई मेल नहीं
अजब से व्यस्तता की उलझन है
बच्चों से भी कभी कोई खेल नहीं।
इधर संस्कृति को धोती है जिंदगी।
अपनी ही माटी में होती है जिंदगी।।
मेरे देश की मिट्टी में वो खुशबू है
जो दिलाती अपनेपन का एहसास
अगर उसकी धूल में भी सन जाऊं
तो लगता है लिपटा हूं मां के पास।
इधर जिंदा हैं पर दूर जाती है जिंदगी।
अपनी ही माटी में होती है जिंदगी।।
खेत खलिहान आंगन का वो बचपन
हर बसंत ने दस्तक दी जवानी को
रोम रोम में उस माटी का अस्तित्व
अमिट कर गया यादों की कहानी को।
एक गुमनाम सी इधर सोती है जिंदगी।
अपनी ही माटी में होती है जिंदगी।