भरात भगिनी : कुंडलियां
भरात भगिनी : कुंडलियां


भरात पाकर धन्य हुआ, सहोदरा का प्यार।
रेशम का एक धागा, रोके हर इक वार।।
रोके हर इक वार, नहीं जिसका कोय तोड़।
हर पग साथ देती, जीवन के हर इक मोड़।।
कहे अनुज संदीप, भगिनी देव तुल्य अनन्य।
स्नेह जान जोत से, भरात जग में हुआ धन्य।।
लड़कपन के वैमत्य से, मिले है एक सीख।
तारुण्य वयस्क काल में, मांगे उसकी भीख।।
मांगे उसकी भीख, नहीं लौटते वो दिन।
दायित्वों के वास्ते, छूट जा
त है कहीं जिद।।
कहे अनुज संदीप, कैद है मुझमें अल्हड़पन।
एक राखी के दिन, जिंदा होता लड़कपन।।
रक्षाबंधन त्यौहार वो, देता है जो उमंग।
अपनों के मेल भाव से, चलती है प्रेम तरंग।।
चलती है प्रेम तरंग, याद दिलाता है अतीत।
रिश्तों के मूल्य का, राखी से होत प्रतीत।
कहे अनुज संदीप, जब करें जीवन मंथन।
बंधे रक्षा सूत्र से, मनाएं तब रक्षाबंधन।।