सुबह सबेरे
सुबह सबेरे
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आंखों से सुना व कानों से
देखा करती हूं मैं रोज
कितनी ही प्राक्रतिक आवाजों को,
भाषाएं अलग अलग है
अभिव्यक्ति की,
फिर भी कुछ ना कुछ
कहते रहते हैं वो,
इसीलिए हर सबेरे आंखों से
सुनकर कानों से
देख़ती हूं मैं उन्हें।
आंखों से सुना व कानों से
देखा करती हूं मैं रोज
कितनी ही प्राक्रतिक आवाजों को,
भाषाएं अलग अलग है
अभिव्यक्ति की,
फिर भी कुछ ना कुछ
कहते रहते हैं वो,
इसीलिए हर सबेरे आंखों से
सुनकर कानों से
देख़ती हूं मैं उन्हें।