सुबह का भूला
सुबह का भूला
चाहत थी उसकी तो हर एक चीज खूबसूरत लगती थी,
पत्थर में भी उसकी सी मूरत लगती थी,
क्या दिन क्या रात हो गए,
वो तुम से आप हो गए।
सिखाया बहुत उसने कि कैसे चलना है इस संसार में,
क्या करने से फंस जाएंगे जीवन की मंझधार में।
सुबह की चाय सा हो गया था उसका होना,
आंखों का खुलना उसकी आवाज़ से होता था।
जिक्र उसका मेरी जुबां पर
हर दिन हर रात हर किसी से होता था,
मोहब्बत मेरी पहली थी
उससे और शायद उसकी भी,
बचपना था बहुत मुझमें,
पर समझदारी ही भरी थी उसमें।
कुछ मेल अपना अलग सा था,
उसे चांद की चाहत थी और मुझे उसकी।
कश्मकश में बरस दो बीता दिए,
"हम आपके हैं कौन"
यह सवाल हम आधी रात में जगा दिए।
उलझन थी बहुत और कसक भी,
कि अब उसके चूमने से भी
महसूस ना हुआ उसका जवाब।
ख़त्म हो गया किस्सा मेरे पहले इश्क़ का
यूँ ही बेख्याली में अजनबी होने के जवाब से।
समय ऐसा भी आया जब बेइंतहा नफ़रत थी
भर गई और ऐसा भी जब इक के रोने से
दूसरे की आंखें भर जाती थी।
बरस कई बीत गए बात कुछ ना होने जैसी होती थी
आज जो भी था कुछ बीच हमारे पन्नों में लिखते हैं,
जो कुछ हुआ ना होता जो कुछ हुआ अच्छा होता,
सुबह का भूला शाम घर आ ही जाता है,
मन को तसल्ली है कि वो कहीं दूसरा नया घर बनवाता है।