सत्ता की कुर्सी
सत्ता की कुर्सी
मैं एक लकड़ी का साधारण फट्टा
पाये लकड़ी के चार लगाकर
पैर बना दो हाथ बनाकर
कमर लगाने की खातिर
जोड़ा मुझमें एक और फट्टा
मैं लकड़ी का साधारण फट्टा।
हुआ अब रूप नया तैयार
बढ़ई ने नाम दिया 'कुर्सी'
मैं हंसी बन फट्टे से कुर्सी
मैं लकड़ी की साधारण कुर्सी ।
मुझ पर बैठ पढ़े बालक
पढ़कर जीवन में बड़े बालक
मैं हुई सम्मानित देश की खातिर
आई काम मैं बन कुर्सी।
मुझ पर बैठे नौकर सरकारी
हुई बोझ से थोड़ी भारी
पर खुश थी फिर भी देश की खातिर
आई काम मैं बन कुर्सी।
मुझ पर बैठे अफसर अधिकारी
जज, वकील, कलेक्टर, पटवारी
कुछ थे काबिल और कुछ नाकारा
थे करते वो बस नाकारी।
हुई दुखी मैं, थोड़ी पीड़ित
देख अनसमझी और मक्कारी
पर फिर भी सब्र था उनकी खातिर
जो थे कर्मठ और समयनिष्ट
निभा रहे अपनी जिम्मेदारी।
फिर एक दिन मैं पहुंची संसद
बन गरबीली इतराती बलखाती
सोच बनूंगी देश का गौरव
बनी मैं सत्ता की कुर्सी।
झूम रही थी जिस मद्य में मैं
हुआ चूर वह, हुई शर्मसार मैं
देख तमाशा कैसे मुझ पर
जान लुटाते, झूठ बोलते
धोखा देते उस जनता को
जिसके कारण और जिसकी खातिर
बैठे हैं मुझ पर देश के नायक।
हाय्य्य्य्य्य्य्य्य्य,हाय, बुरी फंसी मैं
बनकर सत्ता की कुर्सी।