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Deepika Kumari

Abstract Drama Classics

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Deepika Kumari

Abstract Drama Classics

युद्ध

युद्ध

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सर्दी दुपहरी 

धूप न देख 

बैठ गई थुलमा लपेट 

आया विचार अनुशीलन का 

किंचित फुर्सत देख 


मात्र यही शक्ति है एक 

जिसके वश हो पूरी दुनिया

देती घुटने टेक 

इसी के बल पर जीत सकूंगी

दुनिया से दिन एक।


विचार उच्च था 

मन प्रबल 

आरंभ था अच्छा 

पर शत्रु एक 

कंबल की गर्माहट पाकर 

वह हुआ सजग मुझे किया अचेत 

धीरे-धीरे पैरों से बढ़ प्रत्येक अंग को लिया समेट

फिर क्या था हुआ शुरू युद्ध एक 

निद्रा से चेतना का देख।


नैनो को अपने वश करके 

ले जाती निद्रा चारू स्वपनों में 

जागृत एकाएक चेतना 

आंखों से कहती फिर देख 

उठ जा वनिता मत समय व्यर्थ कर 

सो कर, तू पढ़ ले कुछ देख 

कहे चेतना गढ़ कुछ नया 

नहीं रखा अकर्मण्यता में कुछ नेक।


हुआ युद्ध भयंकर 

दोनों में फिर 

बीच फंसी मैं अकेली एक

थोड़ा सोने में हर्ज ही क्या है 

कहकर हो चली संग निद्रा के 

तभी चेतना फिर फिर आकर 

दे झंझोड़ मुझे समझाती 

समझ री पगली वक्त का फेर।


जब उठी चेतना 

अंत में हारी नींद 

चली प्रतीक्षा में रात्रि की

अपने अस्त्रों को समेट 

हुआ तिलक ज्ञान का 

मुस्काया वक्त भी 

जीत चेतना की फिर देख।


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