संगमरमर की मूरत
संगमरमर की मूरत
खुशबू फूलों से देखो जुदा हो गई,
हंसी होंठों से जैसे ख़फ़ा हो गई,
बनके पत्थर वो बैठी थी बेजान सी,
पर मैं समझा कि वो तो ख़ुदा हो गई।
मेरी चाहत में शिद्दत सदा ही रही,
इश्क मेरी इबादत सदा ही रही,
मैं जलता रहा बनके दीपक सदा,
और वो पावन सो मूरत सदा ही रही।
कितनी मासूम सी थी उसकी हर अदा,
सीधे दिल तक पहुचती थी उसकी सदा,
उसने यूं ही कहा बस भुला दो मुझे,
मुझे मंजूर ना था पर हुआ मैं जुदा।
मैं उसको कभी ये बता ना सका,
मन में तस्वीर उसकी दिखा ना सका,
मैं तो मिट्टी था मिट्टी की औकात क्या,
संगमरमर थी वो उसको पा ना सका।।
