समझ नहीं आता
समझ नहीं आता
खुद को सँभालूँ या
अपनों को सँभालूँ मैं ,
समझ में कुछ नहीं आता ,
एक पैमाना लोग रखते हैं
उसी में तोलते है मुझे ,
समझ में क्यों नहीं आता
,कि घुट के मर रहा हूँ मैं!
किसी का कुछ नहीं जाता !
अगर खामोश होता हूँ
सभी नाराज़ होते है ,
अगर नाराज़ होता हूँ
सभी अफ़सोस करते है !
मगर मेरे लिए कोई ,
ख़ुशी कोई नहीं लाता !
रोज़ पीता हूँ रोज़ मरता हूँ ,
रास्ता कुछ भी नहीं पास मेरे ,
मुझे मालूम है बुरा हूँ मैं,
लोग उम्मीद बंधाते है मुझे ,
इस लिए तो गलती करता हूँ ,
कोई समझे यही तो चाहत है ,
इस से पहले कि मर जाऊं ,
अब मुझे कुछ भी नहीं है भाता ,
समझ में कुछ भी नहीं आता
समझ में कुछ नहीं आता !