किसान
किसान
बंजर धरती को वो अपनी मेहनत से उपजाता है,
उम्मीदों का हर एक पौधा वो हर साल उगाता है।
लेकिन घटती ही जाती है कीमत इनकी फसलों की,
ऱह जाता है भूखा वो जो जीवन रोज उगाता है।
सूख रही है फसलें उसकी खेतों में बिन पानी के,
हम लोगों की खातिर इनको अपना खून पिलाता है।
फसलें उसकी जल जाती है, जल जाते हैं हर सपनें,
ऱब ही जाने दिल को कैसे वो उम्मीद दिलाता है।
वो जो तपती दोपहरी में काम करे है मेहनत से,
दे देकर थपकी बच्चों को खाली पेट सुलाता है।
ऩा जागी है, ना जागेगी ये गूगीं बहरी सरकारें,
फिर भी लाचारी में इनका दरवाजा खटकाता है।
आँखे बरबस रो पड़ती है उसकी ऐसी हालत पे,
वो जो धरती पर बेबस सा भूखा ही सो जाता है।
साथ उठेगा सूरज के फिर आता है वो रातों में,
एक निवाले खातिर अपनी सारी नींद उडाता है।
कैसी है किस्मत इसकी जो खेल अज़ब सा खेले है,
साँसों की खातिर खेतों में हर इक साँस गँवाता है।