रो रहा है साहित्य
रो रहा है साहित्य
दिनकर की आत्मा को उस दिन कष्ट हुआ होगा भारी
निराला की आत्मा मरी होगी उस दिन बन बेचारी
जिस दिन कलम से निकलने वाला विरोध का सागर रुक गया
बादल की गर्जन के जैसे रोई होगी कवियों की आत्मा जिस दिन साहित्यकार सत्ता के आगे झुक गया.
बदनाम हो रही है कलम सियासी गलियारों में
मुजरा कर रही है आज कलम राजदरबारों में
भारतेंदु हरिश्चंद खोज रहे है हरिश्चंद्र को कविताओं मे
विपक्ष के साहित्य को खोज रहा हर कोई जय - जयकार की हवाओ में.
विडम्बना है भारी की साहित्य भी सत्ता का गुलाम हो गया
कवियों की परंपराओं का कत्ल सरे आम हो गया
डर का जमाना है , ज्यादा लिखना अब छोड़ दो
होने चाहते हो मशहूर तो सत्ता वालो से अपना नाता जोड़ लो.