सिया की व्यथा
सिया की व्यथा
एक परीक्षा अग्नि की ली गई थी सिया की,
सन्देह चरित्र पर था नहीं, बलि चढ़ी कुलमर्यादा की,
अग्नि भी भेद ना पाई थी मन व्यथा एक नारी की,
पराजित होकर भी विजय हुई एक अत्याचारी व्यभिचारी की।
व्यर्थ हुई थी यह परीक्षा जब समाज ने इसे नकारा था,
तब व्यथित मन से सिया ने धरती माँ को पुकारा था,
स्वाभिमान पर हुआ प्रहार अब उनको नही गंवारा था,
धरती की गोद में बैठकर तब समाज को ललकारा था।
संकुचित विचारधारा के समक्ष झुकी मैं कोई अबला नारी नही,
कुलमर्यादा की भेंट चढ़ी मैं समाज की मोहताज नही,
मेरा यह वर्तमान नारी के भविष्य का उद्धार नही,
नारी का सम्मान स्वयं से वह किसी पर आश्रित नही।
आज की नारी जल रही क्यो शंका की आग में,
बह रहा उनका अस्तित्व समाज की उलटी धार में,
आखिर कब तक जलेगी सीता इस द्रोह की आग में,
वही है जो बदल सकती है यह प्रथा इस ब्रह्मांड में।