ज़िम्मेदारियों का बोझ
ज़िम्मेदारियों का बोझ
ज़िम्मेदारियों का बोझ से रुकने लगे क़दम।
मुसलसल सफ़र करते हुए थकने लगे कदम।
ग़मगुसार तो है कितने मग़र सभी अनजान हैं,
अहल-ए-दिल सुने बैठकर नहीं कोई हमदम।
थमी हुई सी लगती है मुझे ज़िंदगी की घड़ी,
न हलचल होती हैं दिल में आँखें नम पड़ी।
ख़्वाहिशें बाहर आने में करने लगी हैं शरम।
ज़िम्मेदारियों का बोझ से रुकने लगे क़दम।
मुझे रास न आती ये आज़ादी बंदिश वाली,
मुझसे अक्सर दूर ही रहती मेरी खुशहाली।
फिर भी ज़माने को मेरी हँसी का हुआ भरम।
ज़िम्मेदारियों का बोझ से रुकने लगे क़दम।
मिले जो क़याम कुछ पल तो सोचूँ ठहर कर,
ज़िम्मेदारी में भी पूरा हो ख़्वाब वक़्त रोककर।
कही मायूस होकर न बीत जाए मेरा ये जनम।
ज़िम्मेदारियों का बोझ से रुकने लगे क़दम।